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________________ ४८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ धम्मिउ धम्मुकज्जु साहंतउ परु मारइ कीवइ जुज्झतउ । तु वि तसु धम्मु अत्थि न हु नासइ परमपइ निवसइ सो सासइ ।।२६।। धार्मिको धर्मकार्य विधिचैत्यग्रहणादिकं साधयन् सन् कदाचित् परं विपक्षं तदुपघाताय प्रवृत्तं कथमपि मर्मप्रहारादिना व्यापादयति युध्यमानस्तेन सह तथापि तस्य निश्चयनयेन धर्मोऽस्त्येव केवलं विधिप्रवर्तनाय विधिचैत्यग्रहणप्रवृत्तेः । न तु नैव तद्व्यापादनेन धर्मो नश्यति । तथा च क्रमेण परमपदे मोक्षे निवसति स शाश्वते । अयमर्थः भावार्थः धार्मिक केवल विधिविधान लालसः सन् प्रविधि सर्वथा असहमानो प्रविधि कारकान् "जिणपवयणस्स अहियं सव्वत्थामेण वारेइ" त्ति सिद्धान्तवचनानुस्मरणेन यथा तथा निवारयन् कदाचित् परं हन्यादपि तथाप्यत्यन्त शुद्धमनस्कत्वात् शुद्धचारित्रपरिपालनप्रवृत्तसहसाकारनिपातितद्वीन्द्रियादि महामुनिवन्निष्पाप एव । तथा चोच्यते उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावज्जिज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं योगमासज्ज ।। न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिनो समए । अणवज्जोहपोगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ।। इत्यर्थः ।।२६।। अर्थात् यदि विधि द्वारा स्थापित विधि चैत्यगृह में कोई व्यक्ति या समूह प्रविधि चैत्य जैसी प्रवृत्तियां करता है और उस विधि चैत्य को प्रपंच रचकर अपने अधिकार में कर वहां सभी प्रकार की प्रविधि चैत्य की गतिविधियों को प्रचलित करता है तो यह भी एक प्रकार से सत्तू में घृत डालने के तुल्य ही है। इस पद्य की टीका में लिखा है कि यदि कोई राजा अथवा कोई अविवेकी लोभवश अथवा दुःषमा काल के प्रभाव से उन विधि चैत्यों को प्रविधि कारियों को पूजा के लिये सौंप देता है तो भी धार्मिक लोग अपने विधि चैत्यों के छिन जाने पर भी कलह नहीं करते । अर्थात् विपक्षी लोग एकत्रित हो डंडों का प्रहार करें तो भी उनके साथ कलह करने को उद्यत नहीं होते । इससे आगे के पद्य में जिनदत्तसूरि कहते हैं कि यदि कोई धार्मिक व्यक्ति अपने विधि चैत्य में धार्मिक कार्य कर रहा हो अथवा दूसरों के द्वारा ग्रहण किये गये अपने विधि चैत्य को अपने अधिकार में लेने का प्रयास कर रहा हो और उस अवस्था में विपक्षी लोग उसको मारने के लिए प्रवृत्त होते हों, उस दशा में यदि वह विधि चैत्य का उपासक उन प्रविधिकारियों के साथ युद्ध करता हुआ किसी प्रविधिकारी पर मर्म प्रहार कर उसका हनन भी कर देता है तो उस प्रविधिकारी के हनन से उस विधिचैत्यानुयायी धार्मिक व्यक्ति का धर्म नष्ट नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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