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________________ ४६२ } अपने इस पड्यन्त्र को निष्फल हुआ देखकर चैत्यवासियों ने नवागन्तुक साधुयों को शास्त्रार्थ में पराजित कर राज्य से बाहर निकलवा देने का निश्चय किया । निश्चित समय और स्थान पर पाटणाधीश दुर्लभराज के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास "जो चैत्य में न रहकर वसति में रहते हैं, वे साधु नहीं हैं", इस प्रकार के अपने पक्ष की पुष्टि में चैत्यवासियों ने तीर्थंकर प्रभु के उपदेशों के आधार पर रचित द्वादशांगी एवं द्वादशांगी के आधार पर चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा दृब्ध प्रागमों के स्थान पर चैत्यवासी परम्परा के पूर्वाचार्यों द्वारा अपनी कपोल कल्पना से बनाये गये " निगमों" के पाठों एवं उद्धरणों को प्रस्तुत करने का उपक्रम प्रारम्भ किया । "व्याधि को उग्र रूप धारण करने से पूर्व ही नष्ट कर दिया जाय" इस सार्वभौम सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए शास्त्रार्थ हेतु वर्द्धमानसूरि से अधिकार प्राप्त जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज से दूरदर्शितापूर्ण प्रश्न किया :- " राजन् ! जिस राजनीति से आप सुचारु रूपेरण शासन चलाते हैं, वह राजनीति आपके द्वारा नवनिर्मित है अथवा आपके पूर्व पुरुषों द्वारा निर्मित एवं निर्धारित ?" दुर्लभराज ने प्रश्न के उत्तर में सहज गुरु गम्भीर स्वर में कहा :"महाराज ! महात्मन् ! राजनीति हमारी बनाई हुई नहीं है । यह तो युगादि से महर्षियों, राजर्षियों एवं हमारे न्यायप्रिय पूर्वजों द्वारा निर्मित एवं निर्धारित है ।" -- भाग ४ तब जिनेश्वरसूरि ने कहा :- "महाराज ! ठीक कहते हैं प्राप । जिस प्रकार आपकी राजनीति में है, उसी प्रकार धर्मनीति में भी हम तीर्थंकर भगवान् के उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित द्वादशांगी और उस द्वादशांगी के आधार पर चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा निर्यूढ ग्रागमों को ही किसी भी तथ्यातथ्य, खरेखोटे के निर्णय के लिए प्रामाणिक मानते हैं, न कि इनसे भिन्न किसी अन्य आचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों को । हमारे प्रतिपक्षी चैत्यवासी आचार्य द्वारा जो ग्रन्थ अपने पक्ष की पुष्टि में प्रस्तुत किये जा रहे हैं, वे गणधरों अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा बनाये हुए नहीं है । अतः ये प्रामाणिकता की कोटि में न आने के कारण किसी भी सत्पथ के पथिक के लिए मान्य नहीं हैं ।" जिनेश्वरसूरि के वे ऐतिहासिक दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण शब्द प्राज भी खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में निम्नलिखित रूप में विद्यमान हैं : “महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यदुगणधरैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च यो दर्शितो मार्गः स एव प्रमाणीकर्तुं युज्यते नान्यः । १ १. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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