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________________ ४४२ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आसन्न महाप्रयाण अवस्था को देखकर शोकसागर में निमग्न हो गया। उसके फुल्लारविन्दायत लोचन अश्रुषों के पूर से डबडबा उठे। परमार्हत कुमारपाल को इस प्रकार चिन्तातुर देख आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने आश्वस्त करते हुए कहा"राजन् ! संयोग का अन्तिम स्वरूप वियोग एवं जन्म का अन्तिम स्वरूप मरण है। ये दोनों अपरिहार्य एवं ध्रुव हैं। अतः अवश्यम्भावी भाव के लिये चिन्तित होना व्यर्थ है। तुमने अमारि की घोषणा और जिनशासन की श्रद्धापूर्वक अपूर्व सेवा से अपना इहलोक और परलोक सुधारा है। तुम भी थोड़े ही समय में मेरा अनुसरण करने वाले हो इसलिये चिन्ता का पूर्णतः परित्याग कर अपने अवशिष्ट रहे स्वल्प जीवन में जिनशासन की सेवा के कार्यों में निरत हो जाओ। इस प्रकार महाराज कुमारपाल को, अपने शिष्य वर्ग एवं उपासकवृन्द को धर्म में तत्पर रहने का उपदेश दे आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने विक्रम सम्वत् १२२६ में समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। कुमारपाल ने राजकीय सम्मान के साथ आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार किया और उनकी चिता की भस्म लेकर अपने भाल पर श्रद्धापूर्वक उससे तिलक किया। राजा का अनुकरण करते हुए सामन्तों ने, मंत्रियों ने और अन्तिम क्रिया में उपस्थित हुए हजारों नागरिकों ने भी चिता ठंडी हो जाने पर तीसरे चौथे दिन से ही चिता की भस्म का अपने भाल पर तिलक करना प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप चितास्थल पर गहरा गड्ढा हो गया और उस गड्ढे को अणहिल्लपुर पट्टण के निवासियों ने हेमखण्ड नाम दिया। आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के वियोग में अपने लोचन-युगल से अश्रुधाराएं प्रवाहित करते हुए कुमारपाल को शोक सन्तप्त दशा में देखकर सामन्तों एवं सचिवों ने अपने सान्त्वनापूर्ण वचनों से समझाया । कुमारपाल ने शोकावरुद्ध कण्ठ से कहा-“मुझे चिन्ता केवल इसी बात की है कि राजपिण्ड का सदा परिहार करने वाले मेरे गुरुदेव को अन्न तो दूर मेरे यहां के पानी की एक बूंद तक भी मैं समर्पित नहीं कर सका।" .. इस प्रकार अपने परमोपकारी गुरुवर आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि का स्मरण करता हुआ कुमारपाल उनके बताये हुए पथ पर अहर्निश जिनशासन की सेवा में निरत रहने लगा। अन्त में विक्रम सम्वत् १२३० में परमार्हत कुमारपाल ने समाधिपूर्वक अपने सब पापों की आलोचना कर परलोक की ओर प्रयाण किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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