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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ : श्रेष्ठिवर ! संसार में धन वैभव ही सब कुछ नहीं है । जन्म उसी का सफल है जो भूले-भटके लोगों को सन्मार्ग पर आरूढ करे । समष्टि के कल्याण के लिये जीवन अर्पित कर दे। आप अपने इस होनहार पुत्र को घर ले जाकर प्रारम्भ में लिखाएंगें पढाएंगें और फिर व्यवसाय में झौंक देंगे । व्यवसाय में भाग्यवशात् लाखों की सम्पत्ति एकत्रित भी कर ली तो उससे क्या होने वाला है ? आज गुर्जर प्रदेश में एक से एक बढ़कर कुबेरोपम समृद्धि के स्वामी साहस्रों श्रीमन्त श्रेष्ठी हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि उन सहस्रों श्रीमन्तों की संख्या में आपका पुत्र भी एक अंक और बढ़ा दे । मानव जीवन की सार्थकता की इतिश्री इसी में नहीं हो जाती कि लाखों करोड़ों की सम्पत्ति का स्वामी बने । मुझे ही देख लीजिये मेरे प्रारम्भिक जीवन में मेरी आर्थिक स्थिति बड़ी दयनीय थी । धनोपार्जन के लिये घरबार छोड़कर मैं पाटन में आया । मुझे सिर छिपाने के लिये एक विधवा छींपी ( मालवरिया) के घर के कोने में एक जगह मिली । भाग्य में परिवर्तन प्राया । मैं करोड़ों की सम्पत्ति का स्वामी हो गया। गुर्जर राज्य के मन्त्री पद पर भी मुझे ग्रासीन किया गया । आज मैं गुर्जर जैसे विशाल और शक्तिशाली राज्य का मन्त्री होने के साथ-साथ गुर्जर राज्य के समृद्धिशाली एक प्रान्त सँविभाग स्तम्भतीर्थ (खम्भात ) का राज्यपाल हूं । विपुल वैभव और सत्ता का स्वामी होते हुए भी मुझे शान्ति कहां है ? शान्ति की खोज में मैं प्रतिदिन त्यागी विरागी निष्परिग्रही श्रमणोत्तमों की सेवा में उपस्थित होता हूं । यदि सत्ता और समृद्धि में ही सुख और शान्ति का निवास होता तो मुझे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं थी । लोभ वस्तुतः लोकाकाश के समान अनन्त - असीम है। धन की इच्छा सन्तोष के बिना कभी किसी की पूरी हुई हैन होगी ही । यह भी कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि अमुक व्यक्ति लक्ष्मीपति होगा ही । लाखों व्यवसायी अहर्निश वित्तोपार्जन का प्रयास करते हैं लेकिन हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि अनेकों से लक्ष्मी जीवन भर रूठी ही रहती है। दूसरी ओर जन्म मरण के चक्र से सदा सर्वदा के लिये मुक्ति दिलाकर अनन्त सुख अव्यावाध आनन्द प्रदान करने वाला प्रशस्त आध्यात्मिक पथ है, जिसके लिये ज्ञानपु ंज आचार्यश्री देवचन्द्र ने इस बालक का चयन किया है । इस बालक के लक्षणों को देखने से भी यही प्रतीत होता है कि प्राध्यात्मिक पथ पर आरूढ़ हो जन्म-जरा-मृत्यु - व्याधि आदि घोरातिघोर दारुण दुखों से प्रोतप्रोत इस संसार में सन्त्रस्त भव्य प्राणियों को शाश्वत सुख के पथ पर आरूढ़ करने के लिये ही इस • बालक का जन्म हुआ है । चिन्तामरिण रत्न तुल्य इस होनहार बालक को यदि प्राप केवल धन के लिये ही मुक्तिपथ से विमुख करना चाहते हैं तो मेरे पास स्वर्णराशि की कोई कमी नहीं है, लाखों, करोड़ों, जितनी भी स्वर्ण मुद्राएं आपको चाहिये, आप सहर्ष ले लीजिये ।"
श्रेष्ठी का आत्म सम्मान मन्त्रिवर उदयन के अन्तिम वाक्य को सुनते ही सहसा तिलमिलाकर जाग उठा । उसने कहा – “मन्त्रिवर ! यद्यपि आपके
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