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________________ ३४२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ बिरवान के होत चीकने पात' इस तथ्यपूर्ण सूक्ति के अनुसार इस बालक के लक्षणों, चेष्टाओं, इसका उठना बैठना, इसके कार्य कलापों एवं प्रतिदिन की प्रवृत्तियों को देखकर उसके उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में आप जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, मैं भी वस्तुतः यही सोचता हूं कि आगे चलकर यह बालक असाधारण कार्यों को निष्पादित करने वाला कोई असाधारण पुरुष होगा । पर मन्त्रीश्वर ! वस्तुस्थिति यह है .कि मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरे अन्धेरे घर का दीपक यही एकमात्र पुत्र है । मन्त्री प्रवर ! मेरे घर में इसके अतिरिक्त भले ही साधारण से साधारण प्रतिभा वाला एक भी और पुत्र यदि होता तो मैं सहर्ष इस बालक को जिनशासन की सेवा में हमारे धर्मसंघ को हमारे ज्ञानपुंज तपोधन प्राचार्यदेव को समर्पित कर देता । पर यदि इस इकलौते पुत्र को भी धर्माचार्य की भेंट कर दिया जाय तो हमारा शेष समग्र जीवन, घोर अन्धकारपूर्ण हो जायगा । हमारे पश्चात् हमारे घर के द्वार सदा के लिये बन्द हो जायेंगे । बस यही एक बहुत बड़ी दुविधा मेरे समक्ष है । अन्यथा अपने प्राणप्रिय पुत्र के उज्ज्वल भविष्य में बाधक बनने जैसी मूर्खता मैं कदापि नहीं करता । " मन्त्री उदयन ने बड़े एकाग्र चित्त से श्रेष्ठी चाचिग की बात सुनने के पश्चात् कहा :- "धर्मबन्धु श्रेष्ठिवर ! साधारणतः लौकिक दृष्टि से आपका कथन शत-प्रति शत समुचित है । किन्तु जहां तक इस बालक की असाधारण पुण्यशालिनी प्रतिभा के सदुपयोग का प्रश्न है, आपको, हमें लौकिक दृष्टि की अपेक्षा समष्टि के हित में लोकोत्तर दृष्टि को आध्यात्मिक दृष्टि को सर्वाधिक महत्त्व देना होगा । इस तथ्य से तो आप भली भांति अवगत ही हैं कि असाधारण अलौकिक आत्मशक्ति सम्पन्न युग परिवर्तनकारिणी विभूतियां इस घरातल पर अनेकों शताब्दियों ही नहीं अपितु कतिपय सहस्राब्दियों के अन्तराल के अनन्तर कभी-कभी समष्टि के पुण्योदय से ही अवतीर्ण होती हैं । आपका यह बालक चंगदेव सहस्राब्दियों से जन-जन के प्रबल पुण्योदय के फलस्वरूप अवनीतल पर अवतीर्ण होने वाली महान् विभूतियों में से एक महा महिमामयी महार्घ्य विभूति है । यों तो संसार में जन्म-मरण का क्रम अनादि काल से अनवरत रूपेण चला आ रहा है। लाखों करोड़ों मानवों में से प्रायः अधिकांश लघु श्रेणी के, उनसे कम मध्यम श्रेणी के ही होते हैं । उन करोड़ों लोगों में से असाधारण उच्च कोटि के शिल्पी, विद्वान् योद्धा, व्यवसायी अथवा प्रशासक भी इने गिने-इक्के दुक्के हो ही जाते हैं । किन्तु जन-जन को विश्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाकर इह तथा पर- उभय लोकों में परम कल्याणकारिणी सच्ची मानता के सांचे में ढालने वाले, नर को नारायण अथवा सत्यं शिवं सुन्दरं स्वरूप प्रदान करने वाले समष्टि के सच्चे मित्र युग प्रवर्त्तक महापुरुष तो युग युगान्तरों में सहस्रों वर्षों के अन्तराल से कभी-कदास ही होते हैं । जो काम आप नहीं कर सकते, मैं नहीं कर सकता, हमारे जैसे करोड़ों व्यक्ति भी मिल कर नहीं कर सकते हैं, उस कार्य को विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न वह महान् विभूति सहज ही सम्पन्न- सिद्ध कर देती है । इस युग के महान् योगी भविष्य द्रष्टा देवचन्द्रसूरि ने आपके इस असा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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