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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] हेमचन्द्रसूरि को प्रथम सूचना के साथ ही जिस प्रकार मयूर हर्षोन्मत्त हो अनायास ही नाच उठता है, ठीक उसी प्रकार उसका मुदित मन थिरकने को मानो व्यग्र हो उठा है ? मन ही मन इसके कारण के विषय में विचार करने पर उसे यही लगा कि यह सब कुछ उस स्वप्न का ही प्रभाव है। स्वप्न तो वस्तुत: अतीव श्रेष्ठ है इसीलिये उसका अन्तर्मन आनन्द से ओतप्रोत हो रहा है । श्रेष्ठ स्वप्न का फल भी श्रेष्ठ ही . होना चाहिये पर किस रूप में होगा यह तो ज्ञानी ही जाने। इस प्रकार के मृदु मंजुल विचारों के हिंडोलों पर झलती-झूमती पाहिनी को उषा कालीन मन्द-मन्द मलयानिल के झोंकों ने जैसे कुछ स्मरण दिलाया हो, वह उठी और सदा की भांति दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई । गृहकार्यों को समेटते-समेटते उसे स्मरण हो आया कि उसके धर्मगुरु आचार्यदेव धन्धुका नगर में पधारे हुए हैं, तो वह उन्हें अपना स्वप्न सुनाकर इसका फल पूछेगी।
उन दिनों चन्द्रगच्छीय विद्वान् आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरि के शिष्य देवचन्द्रसूरि धुन्धुका नगर के 'मोढ वसही' नामक स्थान में विराजमान थे। प्रातःकालीन आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो पाहिनी 'मोढ वसही' की ओर चली। प्राचार्य श्री देवचन्द्रसूरि के दर्शन वन्दन के अनन्तर पाहिनी ने उन्हें अपने स्वप्न दर्शन की बात सुनाते हुए निवेदन किया :-"प्राचार्यदेव ! रात्रि के अवसान काल में मैंने एक बड़ा ही सुन्दर स्वप्न देखा है। उस स्वप्न में मैंने एक अलौकिक कान्तिमान चिन्तामणि रत्न आपको भेंट किया । भगवन् ! कृपा कर बताइये कि इस स्वप्न का क्या फल होगा।"
अनेक विद्याओं एवं आगमों के पारदृश्वा प्राचार्य श्री देवचन्द्रसूरि अन्तर्वेधिनी दृष्टि से पाहिनी के भाल की ओर एक क्षण देखकर विचारमग्न हो गये। कतिपय क्षणों तक पृथ्वी पर दृष्टि गड़ाए सोचने के अनन्तर उन्होंने पाहिनी से कहा :"धर्मनिष्ठे ! तुम कौस्तुभ मणि के समान एक पुत्र रत्न को जन्म दोगी, तुम अपना वह पुत्र रत्न मुझे प्रदान करोगी और वह जिनशासन की महती प्रभावना कर उसकी शोभा बढ़ाएगा।'
गर्भकाल पूर्ण होने पर पाहिनी ने विक्रम सम्वत् ११४५ की कात्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन प्राची में रोहणगिरि पर आरूढ़ उदीयमान ध्वान्तान्तकारी बाल आदित्य के समान अरुण वर्ण वाले मनोहारी नयनाभिराम पुत्र रत्न को जन्म
१. प्रबन्ध चिन्तामणिकार आचार्य श्री मेरुतुङ्गसूरि ने पाहिनी के स्वप्न और देवचन्द्रसूरि
के आगमन आदि का कोई उल्लेख न करते हुए केवल यही लिखा है :- "अर्धाष्टमनामनि देशे धुन्धुक्क नगरे श्रीमन् मोढवंशे चाचिग नामा व्यवहारी""तत्सधर्मचारिणी" पाहिणी नाम्नी "तयोः पुत्रश्चांगदेवोऽभूत् ।
-प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ १३५
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