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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूरि
[ ३०७ .........सिद्धराजसभ्येषु निषेधपरेष्वपि अप्रमेयप्रमेयलहरीभिस्तं प्रमाणाम्भोधौ मज्जयितु प्रारब्धे षोड़शे दिने आकस्मिके देवाचार्यस्य कण्ठावग्रहे मान्त्रिकैः श्री यशोभद्रसूरिभिरतुल्यकुरुकुल्लादेवी प्रसादलब्धवरेस्तत्कण्ठपीठात्क्षणाक्षपणककृतकार्मणानुभावात् केशचण्डुकः पातयांचक्रे । तच्चित्रनिरीक्षणाच्चतुरैः श्री यशोभद्रसूरिः श्लाघ्यमानः, कुमुदचन्द्रश्चामन्दं निन्द्यमानः प्रमोदविषादौ दधाते । ........
ti....."अथ प्रथममेव वाचस्ततो मुद्रिता इति स्वयं पठितमिति स्वयमपशब्दप्रभावात्तदा तु प्रादुर्भूतमुखमुद्रः श्रीदेवाचार्येण निजितोऽहमिति स्वयमुच्चरन् श्री सिद्धराजेन पराजितव्यवहारादपद्वारेणापसार्यमाणः
संभवत्पराभवाविर्भावादुद्विस्फोटं प्राप्य विपेदे ।।' _ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के उक्त उल्लेख में "प्रारब्ध षोडशे दिने" इस पद के प्रयोग से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि अपने समय के उन दो महान् प्राचार्यों के बीच पाटन की राज्य सभा में जो शास्त्रार्थ हुआ, वह सोलह दिन चला।
इन दोनों प्राचार्यों के बीच हुए शास्त्रार्थ के समय कलिकाल सर्वज्ञ विरुद विभूषित श्री हेमचन्द्र सूरि भी राजसभा में उपस्थित थे, यह तथ्य भी प्रबन्ध चिन्तामरिण में स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया गया है। जो इस प्रकार है :
"युवयो: को वादीति पृच्छन्, श्री देवसूरिभिस्तन्निराकरणायायं भवतः प्रतिवादीत्यभिहिते कुमुदचन्द्रः प्राह । मम वृद्धस्यानेन शिशुना सह को वाद इति तदुक्तिमाकाहमेव ज्यायान् भवानेव शिशुः यो अद्यापि कटीदवरकमपि नादत्से निर्वसनं च । इत्थं राज्ञा तयोवितण्डायां निषिद्धायामित्थं पणबन्धो मिथः समजनि पराजितैः श्वेताम्बरैदिगम्बरत्व· मंगीकार्यम् ।"
अर्थात् देवसूरि और हेमचन्द्राचार्य को एक आसन पर राज्यसभा में बैठे देखकर दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र ने प्रश्न किया :-"तुम दोनों में से वादी कौन है ? "देवसूरि ने प्राचार्य हेमचन्द्र की ओर इंगित करते हुए कहा :-"आपके प्रतिवादी ये प्राचार्य हेमचन्द्र हैं । "इस पर प्राचार्य कुमुदचन्द्र ने व्यंग-हास्यपूर्वक कहा :"इस शिशु के साथ मुझ जैसे वयोवृद्ध का शास्त्रार्थ वस्तुतः एक अद्भुत् प्रसंग ही है।"
प्रत्युत्पन्नमति आचार्य हेमचन्द्र ने प्राचार्य कुमुदचन्द्र की बात सुनते ही तत्काल कहा :-"महानुभाव ! आपसे तो मैं बड़ा ही हं। मेरे समक्ष तो अभी
१. प्रबन्ध चिन्तामणिः पृष्ठ ११० व १११ .
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