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________________ जिनवल्लभसूरि [ सामान्य श्रतधर काल खण्ड-२ 1 २३६ कमी न देखकर मन ही मन विचार किया - " मठ की व्यवस्था सुचारू रूप से पूर्ववत् चल रही । यह किशोर, जैसा मैंने विचार किया था उसी प्रकार का योग्य होगा । मु चाहिए कि मैं इसे प्राचार्य पद पर आसीन कर मठ की व्यवस्था की तरफ से निश्चिन्त हो जाऊं । इस किशोर ने सभी प्रकार की अन्यान्य विद्याओं में तो निष्णातता प्राप्त कर ली है किन्तु अभी तक इसने सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया है । आगमों का ज्ञान प्रदान करने में इन दिनों अभयदेवसूरि ही प्रख्यात हैं । इसलिये जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि के पास भेजकर नागमों का मर्मज्ञ विद्वान् बनाना परमावश्यक है । जब यह अभयदेवसूरि के पास आगमों का अध्ययन कर लौटेगा तब इसे मैं प्राचार्य पद पर अधिष्ठित कर दूंगा ।" इस प्रकार का संकल्प कर जिनेश्वरसूरि ने अपने शिष्य जिनवल्लभ को वाचनाचार्य पद पर अधिष्ठित किया और अपने जिनशेखर नामक एक शिष्य को उसकी वैयावृत्य आदि के लिए साथ कर ५०० स्वर्ण मुद्राओं के साथ उसे अभयदेवसूरि के पास आगमों के अध्ययन के लिये अणहिल्लपुर पट्टण की ओर प्रस्थित किया । जिनवल्लभ अपने साथी जिनशेखर के साथ प्रस्थित हो मार्ग में अवस्थित मरुकोट्ट नामक नगर में रात्रि में माणु श्रावक के देवगृह में रुका । वहां से दूसरे दिन प्रस्थान कर वह क्रमशः अरणहिल्लपुर पट्टण में पहुंचा और अभयदेवसूरि के उपाश्रय को पूछता हुआ उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। वहां विराजमान प्रभयदेवसूरि को जिनवल्लभ ने बड़ी भक्ति के साथ वन्दन किया । अभयदेवसूरि ने उसको देखते ही उसके प्रशस्त लक्षणों से भव्य व्यक्तित्व एवं चूड़ामरिण ज्ञान के द्वारा समझ लिया कि यह कोई सुयोग्य भव्य प्राणी है । अभयदेवसूरि द्वारा आगमन का प्रयोजन पूछे जाने पर जिनवल्लभ ने अति विनम्र स्वर में अभयदेवसूरि से निवेदन किया- "पूज्य आचार्यदेव ! मेरे गुरुवर श्री जिनेश्वरसूरि ने मुझे आपके चरणों की शरण में आगमों के अध्ययन के लिये भेजा है ।" नख से शिख तक अन्तर्वेधिनी दृष्टि से जिनवल्लभ की ओर देखते हुए अभयदेवसूरि ने मन ही मन विचार किया - " यद्यपि यह चैत्यवासी परम्परा के आचार्य का शिष्य है तथापि है सुयोग्य आगम में स्पष्ट विधान है कि किसी भी श्रागमज्ञ को भले ही अपनी विद्या के साथ ही समय आने पर मरना क्यों न पड़े पर अपात्र को किसी भी दशा में आगमों का ज्ञान नहीं देना चाहिये परन्तु यदि श्रागम ज्ञान के लिये सुपात्र उपलब्ध हो जाय तो उसकी अवमानना और उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।" क्षण भर मन ही मन इस प्रकार का विचार कर अभयदेवसूरि ने घनरव गम्भीर स्वर में जिनवल्लभ से कहा- " अच्छा ही किया कि आगमों की वाचना के लिये यहां आ गये ।” शुभ मुहूर्त देखकर अभयदेवसूरि ने नवागन्तुक शिष्य जिनवल्लभ को आगमों की वाचना देना प्रारम्भ कर दिया । वाचना के समय जिनवल्लभ एकाग्र चित्त हो अभयदेवसूरि के मुखारविन्द से प्रकट हुएअक्षर, प्रत्येक शब्द और वाक्य को अमृत तुल्य समझ कर पीने लगा - हृदयंगम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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