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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि
[ १७७ बात की अकाट्य परम प्रामाणिक साक्षी है, स्वयं अभयदेवसूरि द्वारा रचित 'पागम अष्टोत्तरी' की वह गाथा, जिसका प्रथमार्द्ध है-"देवढि खमासमरण जा परम्परं भावो वियाणेमि" जिस पर यथास्थान स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला जा चुका है। यह तथ्य भी अभयदेवसूरि से छुपा तो नहीं रह सका होगा कि उनके दादा गुरु वर्द्धमानसूरि ने क्रियोद्धार करते समय कोई आंशिक धर्मक्रान्ति नहीं अपितु सर्वांगपूर्ण समग्र धर्मक्रान्ति की थी। चालुक्यराज पाटणपति महाराज दुर्लभराज की राजसभा में अभयदेवसूरि के गुरु जिनेश्वरसूरि द्वारा कहे गये ये शब्द-"महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यद्गणधरैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च यो दर्शितो मार्गः स एव प्रमाणीकर्तुं युज्यते नान्यः' - इस ऐतिहासिक तथ्य के अमर साक्षी, इस बात के अकाट्य प्रबल प्रमाण हैं कि वर्द्धमानसूरि ने पूरी पंचाङ्गी-(आगम, नियुक्ति, चूरिण, भाष्य और वृत्ति) प्रमाणभूत न मानते हुए केवल आगमों को ही सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक मानकर पूर्ण क्रियोद्धार किया था। जिनेश्वरसूरि के उपर्युक्त कथन का दूसरे स्पष्ट शब्दों में यही अर्थ निकलता है कि नियुक्तियां, चूणियां, भाष्य और वृत्तियां तथा चैत्यवासियों द्वारा रचित निगमोपनिषद् किसी गणधर अथवा चतुर्दशपूर्वधर द्वारा निर्मित नहीं हैं, अतः वे आगमों के अर्थ को समझने में सहायक तो हो सकती हैं किन्तु आगमों की भांति अक्षरशः किसी भी दशा में प्रामाणिक नहीं मानी जा सकतीं। उपरिलिखित कथन के माध्यम से जिनेश्वरसूरि ने अपने गुरु वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये सर्वांगपूर्ण क्रियोद्धार में आगमेतर किसी भी ग्रन्थ के नाम पर, चाहे वह नियुक्ति, चूरिण, वृत्ति अथवा भाष्य ही क्यों न हो, अनागमिक मान्यता के विपरीत किसी भी मान्यता, विधिविधान, कर्म-काण्ड, अनुष्ठान आदि अथवा किसी भी प्रकार की विकृति के प्रवेश का कहीं कोई किंचिन्मात्र भी अवकाश न रखकर पूर्ण क्रियोद्धार को अपूर्ण अथवा अांशिक क्रियोद्धार का रूप देने के सभी प्रकार के प्रयासों का सदा-सदा के लिए द्वार हो बन्द कर दिया था।
इस प्रकार की सुस्पष्ट स्थिति के उपरान्त भी सर्वाङ्गपूर्ण क्रियोद्धार के माध्यम से एक सशक्त एवं पूर्ण धर्मक्रांति का सूत्रपात कर शिथिलाचार तथा अनागमिक मान्यताओं की जननी चैत्यवासी परम्परा का सार्वभौम वर्चस्व, एकच्छत्र
आधिपत्य समाप्त करने वाले महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि के उत्तराधिकारियों में एकमात्र प्रागमों के स्थान पर पूरी पंचांगी को प्रामाणिक मानने की प्रक्रिया कब प्रारम्भ हुई ? “सुहागिन स्त्रियाँ आगम निष्णात, वाग्मी, एवं प्राचार्य के सभी गुणों से सम्पन्न प्रतिष्ठाचार्य के शरीर पर तैल मर्दन, गन्ध विलेपन आदि करें। तदनन्तर प्रतिष्ठाचार्य को बहुमूल्य एवं अतीव सुन्दर वस्त्र पहनाये जायें। तत्पश्चात् प्रतिष्ठाचार्य को हाथ की एक अंगुली में स्वर्ण मुद्रिका और एक कर में स्वर्णकंकरण
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि, पृष्ठ ३
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