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________________ वर्द्धमानसूरि तव्वयणेणं सिरिसुमइवायगाणं विणेयलेसेण । गरिरणा गुरण चंदेणं रइयं सिरीवीरचरियमिमं ॥ ५६ ॥ नंदसिहरुद्दसंखे (११३६) वोक्कंते विक्कमा कालम्मि । जेट्ठस्ससुद्धतइयातिहिमि सोमे समत्तमिमं ॥८३॥१ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अपनी उत्कृष्ट कोटि की काव्यकृति " महावीरचरियं" के अन्त में दी हुई प्रशस्ति में गुरणचन्द्रगरण ने आर्यवज्र के शिष्य वज्रसेन की शिष्य संतति से उत्पन्न हुए चार कुलों में प्रथम चंद्रकुल के आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि का प्रगाढ़ श्रद्धा-निष्ठाभक्तिपूर्वक स्मरण किया है । गणिगुणचन्द्र ने वर्द्धमानसूरि की स्तुति में कहा हैजिस समय श्रार्यधरा पर सर्वत्र घोर कलिकाल के प्रभाव से निबिड़ अज्ञानान्धकार व्याप्त हो गया था, उस समय चन्द्र कुल के प्राचार्य विशुद्ध संयम के अक्षय-भण्डार श्री वर्द्धमानसूरि ने श्रागम ज्ञान के प्रदीप्त प्रदीप का प्रकाश कर मुमुक्षु मुनियों के लिये मुक्ति का पथ प्रशस्त किया ।. [ १२१ उन वर्द्धमानसूरि के साक्षात् सूर्य और चन्द्र की भांति सर्वविदित दो शिष्यरत्न थे । उनमें से प्रथम शिष्य थे श्री जिनेश्वरसूरि जो भवसागर की उत्ताल तरंगों की थपेड़ों से प्रपीड़ित भव्य प्राणियों को भवसागर से उबार कर शाश्वत शिवसुखधाम - मुक्ति में पहुँचाने वाले महान् जलपोत के तुल्य थे। जिस भांति शैलाधिराज हिमालय पर्वत से महानदी गंगा प्रकट होती है, उसी प्रकार इन जिनेश्वरसूरि से साधु संतति पुनः निर्मल अथवा सुविहित रूप में प्रवर्तितप्रवाहित हुई । जिनेश्वरसूरि के पश्चात् महावीर चरियं के रचनाकार गुणचन्द्रगरि ने क्रमशः बुद्धिसागरसूरि, "संवेगरंग शाला" नामक ग्रन्थ रत्न के निर्माता जिनचन्द्रसूरि, नवांगीवृतिकार अभयदेवसूरि, उनके विद्याशिष्य प्रसन्नचन्द्रसूरि, सुमतिगरिण ( गुणचन्द्रगर के गुरु ) का सादर स्मरण करते हुए लिखा है कि सुमतिवाचक ( उपाध्याय) के शिष्य गुणचन्द्र ने प्रसन्नचन्द्रसूरि के आग्रहपूर्ण निर्देश से विक्रम संवत् ११३६ (अभयदेवसूरि के स्वर्गवास होने के संवत् ) २ में महावीर चरियं का प्रणयन पूर्ण किया । ऊपर उद्धतप्रशस्ति गाथाओं में आर्यवत्र एवं चन्द्रकुल के स्मरण के तत्काल पश्चात् महावीरचरयिम् के रचनाकार ने भी अपनी श्रमण परम्परा के आदि प्राचार्य के रूप में वर्द्धमानसूरि का और उनके पट्ट और पट्टधरों - जिनेश्वर, बुद्धिसागर, जिनदत्त, अभयदेव, प्रसन्नचन्द्रसूरि और उपाध्याय सुमतिगरिण ( अपने गुरु ) का तो उनके गुणगानपूर्वक स्मररण किया है किन्तु उन्होंने भी अभयदेवसूरि की भांति वर्द्ध१. महावीर चरियं गुणचन्द्रगरिण पत्र, ३३७, ३४०, ३४१ । २. अभयदेवसूरि का स्वर्गवास एक मान्यतानुसार वि. सं. ११३५ और दूसरी मान्यतानुसार वि. सं. ११३६ उपलब्ध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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