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________________ ७८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ पाताल में प्रविष्ट होते ही आपकी यह धारा नगरी और सम्पूर्ण धरित्री पाताल के गहनतम तल में चले जायेंगे । इस श्लोक का दूसरा अर्थ यह होता है कि पहले से ही विद्ध की हुई इस शिला के छिद्र को लक्ष्य कर आपने बारग चलाया और इस शिला का वेध कर दिया । पूर्व में किये हुए छिद्र को लक्ष्य कर शिलावेध करने से किसी भी धनुर्धर का पराक्रम प्रकट नहीं होता । अतः इस प्रकार की छलपूर्ण धनुक्रीड़ा का परित्याग ही कर दीजिये । पत्थरों के भेदन का यह व्यसन अन्ततोगत्वा महाविनाशकारी व्यसन है । प्रस्तर वेध के करते-करते यदि यह व्यसन उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और आपके कुलपर्वत नगाधिराज अर्बुद पर शर प्रहार किये जाते रहे तो धरित्री को धारण करने वाले भूधर अर्बुदगिरि के पाताल के गहन तल में जाने के साथ-साथ आपकी यह अतीव प्रिया धारा नगरी और यह सम्पूर्ण पृथ्वी ही पाताल के गहन तल में पहुंच जायेंगे ।” गुर्जराधीश भीम यह सुन कर हर्षातिरेक से कह उठे - "मेरे भ्राता ( मातुलपुत्र सूराचार्य) ने भोज को जीत लिया है, अब मुझे उसको जीतने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । " सूराचार्य ने भगवान् ऋषभदेव श्रौर नेमिनाथ पर द्विसन्धान काव्य और नेमिचरित महाकाव्य की रचना की। उन्होंने अपने गुरु के समक्ष उन सब दोषों की श्रालोचना कर प्रायश्चित ग्रहण किया, जो दोष उनको मालव राज्य की यात्रा के समय लगे थे। सुराचार्य ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर अपने पहले के विद्यार्थी श्रमणों को भी अग्रेतर अध्ययन करवाना प्रारम्भ किया । अपने अध्यापन कौशल से उन्होंने उन शिक्षार्थी साधुत्रों को सभी विद्याओं में निष्णात बना उन्हें आगम शास्त्रों का भी गहन अध्ययन कराया । द्रोणाचार्य ने अन्त में समस्त पापों की आलोचना कर संलेखनापूर्वक स्वर्गगमन किया । द्रोणाचार्य के पश्चात् अनेक वर्षों तक सूराचार्य जैनधर्म का प्रचार प्रसार करते रहे और अपने जीवन के अन्तिम समय में उन्होंने सभी प्रकार के आहार पानीय आदि का परित्याग कर आजीवन अनशन अर्थात् प्रायोपवेशन अंगीकार किया । वह अनशन ( संथारा ) ३५ दिन तक चला और अन्त में आत्मचिन्तन करते वे स्वर्गस्थ हुए । हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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