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यापनीय साहित्म : ७३
परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सलग सुखी भर्वाद असुखी वा वि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चितए ॥ पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन में अनुपलब्ध भी बताया है ।" किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती अराधना की टीका देखी, तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथायें नहीं कहा गया है । उसमें मात्र "इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति” कहकर इन्हें उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो गई हम नहीं जानते । पुनः ये गाथाएं भी चाहे शब्दशः उत्तराध्ययन में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएं और शब्दरूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं । उपरोक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएं प्रस्तुत हैं-
'परिजुण्णेहि वत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा ' सचेलए होक्ख' इदं भिक्खू न चिन्तए || ' एगया अचेलए होइ सचेले यावि एगया ।' एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए ||
-- उत्तरा० २११२-१३
जिस प्रकार श्वे० परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत के आगम से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि प्राचीन -स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलतः अर्धमागधी के रहे हैं । उनमें जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती हैं । "विजयोदया के आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णतः शौरसेनी प्रभाव से आचारांग उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही हैं । यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और यापनीयों ने उसे
१. जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका, पृ० ५२६
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युक्त हैं । मूलतः अर्धमागधी मे रहे
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