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________________ ७० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित की व्याख्या पूर्णतः भ्रान्त ही है । मात्र यही नहीं, अगली गाथा की टीका में उन्होंने 'थुदि', 'पच्चक्खाण' एवं 'धम्मकहा' को जिन ग्रन्थ से समीकृत किया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है । आश्चर्य है कि वे 'दि' से देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार का मन्तव्य अन्य ही है ।" जहाँ तक गणधरकथित ग्रन्थों का प्रश्न है वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग ग्रन्थों से है, प्रत्येकबुद्धकथित ग्रन्थ से तात्पर्यं प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित से है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं; ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययननियुक्ति आदि में है । श्रुतकेवलि कथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य स्वयम्भूरचित दशवेकालिक, आचार्य भद्रबाहु ( प्रथम ) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध (आयार दसा ), व्यवहार एवं निशीथ आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वी कथित ग्रन्थों से उनका तात्पर्य कम्मपयडी आदि 'पूर्व' साहित्य के ग्रन्थों से है । यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ईसा की छठीं शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता । दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा की दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई थी फिर वीर निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी मिलती है किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते हैं। जबकि मूलाचार स्पष्टतः उनके १. देखिए – मूलाचार, ५/८०-८२ पर वसुनन्दि की टीका । २. ( अ ) अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया । बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ - उत्तराध्ययननिर्युक्ति ४ । (ब) पत्ते बुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठनेमिस्स । पासस्स य पण्णदस वीरस्स विलीणमोहस्स || - इसिभासियाई, संग्रहणी गाथा । (स) पण्हावागरणदसासु णं ससमय - परसमय पण्णवय- पत्ते अबुद्ध '''। Jain Education International For Private & Personal Use Only - समवायांग ५४७ । www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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