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“६० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
माथुरसंघ
देवसेन ने माथुरसंघ की उत्पत्ति काष्ठासंघ से ही मानी है, उनके अनुसार काष्ठासंघ के रामसेन के द्वारा ही वि० संवत् ९५३ में संघ की उत्पत्ति हुई। माथुरसंघ का मुख्य प्रभाव क्षेत्र पूर्वी राजस्थान पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, हरियाणा, गोपाञ्चल अर्थात् आगरा ग्वालियरादि का क्षेत्र तथा बुन्देलखण्ड रहा है। माथुर संघ को निष्पिच्छिक संघ भी कहा जाता है। ऐसा लगता है कि काष्ठासंघ में जो चामर-पिच्छि रखो जाती थो, उसकी कर्कश केश ग्रहण के रूप में आलोचना होने के कारण ही माथुरसंघ के भट्टारकों ने पिच्छि का परित्याग कर दिया होगा। षड्दर्शनसमुच्चय को गुणरत्न की टीका' में तथा इन्द्रनन्दी कृत नीतिसार में इन्हें निष्पिच्छिक कहा गया है। किन्तु लाटी संहिता, में जो कि काष्ठासंघ
और माथुर गच्छ के पं० राजमल्ल की कृति है, में जहाँ क्षुल्लक के लिए वस्त्र पिच्छि का उल्लेख मिलता है वहीं ऐलक के लिए स्पष्ट रूप से पिच्छि का उल्लेख है। वस्त्र-पिच्छि के दो अर्थ होते हैं-वस्त्र के धागों से बनी हुई पिच्छि अथवा वस्त्र ही है पिच्छि जिसको । स्मरण रहे कि श्वेताम्बर परम्परा में आज भी ऊनी धागों से बने रजोहरण रखे जाते हैं।
यह माना जाता है कि माथुरसंघ क्षुल्लक की वोरचर्या का निषेध करता था। यह सत्य है कि मूलसंघीय वसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार
१. काष्ठासङ्घ चमरोबालैः पिच्छिका, मूलसङ्घ मायूरपिच्छः पिच्छिका, माथुरसङ्घ मूलतोऽपि पिच्छिका नावृता गोप्यां मायूरपिच्छिका ।
___ --षड्दर्शनसमुच्चय पृ० १६१ । २. गोपुच्छिकाः श्वेतवासाः द्राविडाः यापनीयकाः । निपिच्छिकाश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।।
-नीतिसार (इन्द्रनन्दी १०) ३. क्षुल्लकः कोमलाचारः शिखासूत्राङ्कितो भवेत् । एकवस्त्रं सकौपीनं वस्त्रपिच्छकमण्डलम् ।।
--लाटीसंहिता ७१६३ ४. तलकः स गृह्णाति वस्त्रं कौपनिमात्रकम् । लोचं स्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमण्डलुम् ।।
--लाटी संहिता ७१५६
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