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५८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय हुए हैं, उसके कारण ही काष्ठा संघ में कुछ यापनीय मान्यताओं का प्रवेश हुआ है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि यापनीयों के समान काष्ठासंघ का दृष्टिकोण भी स्त्रियों के सन्दर्भ में उदार था । पुन्नाटसंघीय आचार्य स्त्रीमुक्ति एवं स्त्री को छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) का निषेध नहीं करते थे। दर्शनसार में भी काष्ठासंघ की विशेष मान्यता की चर्चा करते हुए स्त्रियों की पुनर्दीक्षा का उल्लेख किया गया है। काष्ठासंघ यापनीयों के समान ही स्त्रियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान करता था । श्रमती (डॉ० कुसुम पटोरिया) ने छेदोपस्थापनीय का अर्थ श्रुतसागर की षट्पाहुड टीका के आधार पर प्रायश्चित्त कर लेने पर पुनः दीक्षा प्राप्त करना'-ऐसा जो लिखा है, वह श्रुतसागर जी की एवं उनकी भ्रान्ति ही है। छेद का तात्पर्य है पूर्व की दीक्षा-पर्याय का अर्थात् सामायिक चारित्र की दीक्षा-पर्याय का छेद, और उपस्थापन का अर्थ है-संघ में वरीयता क्रम प्रदान करना या संघ में सम्मिलित करना। श्वेताम्बर परम्परा में आज भी छेदोपस्थापनीय चारित्र के पश्चात ही नवदीक्षित मुनि को संघ में सम्मिलित माना जाता है और उसी दिन से वरीयता (ज्येष्ठता) निश्चित की जाती है। छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान करने का अर्थ महावतारोपण करना है। इससे यही फलित होता है कि काष्ठासंघ में सवस्त्र होते हए भी स्त्रियों को महाव्रत प्रदान किये जाते थे। यहाँ पूनर्दीक्षा शब्द का अर्थ भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। श्वेताम्बर आगमिक व्याख्याओं के अनुसार महावीर ने ही अपने संघ में सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र-ऐसे दो प्रकार की श्रमण दीक्षाओं की व्यवस्था की थी। पार्श्व की परम्परा में ऐसी व्यवस्था नहीं थी, सम्भवतः नवागन्तुक युवाओं और उन पापित्य श्रमणों को जो वस्त्र का त्याग नहीं करना चाहते थे स्थविरकल्प अर्थात् पार्श्व के संघ की व्यवस्था के अनुसार सामायिक चारित्र प्रदान किया जाता था-ये युवा हों तो क्षुल्लक और वृद्ध हों तो स्थविर कहलाते थे। जिनकी साधना को परख लिया जाता था और जो वस्त्रादि सम्पूर्ण परिग्रह का त्यागकर जिनकल्प का आचरण करते थे उन्हें ही छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान किया जाता था । श्वेताम्बर परम्परा में आज भी सर्वप्रथम छोटी दीक्षा के रूप में सामायिक चारित्र प्रदान किया जाता है और फिर कुछ समय पश्चात् उसकी क्षमता के
१. यापनीय साहित्य और उनका साहित्य पृ० ६५ ।
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