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४९० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के साथ अनन्यभाव से रहना, व्यक्त वस्तु का ही ग्रहण करना और साधर्मी के उपकरणों का विचारपूर्वक सेवन करना है। यहाँ स्पष्ट है कि मूलाचार और भगवती आराधना में किंचित् परिवर्तन के साथ आगमिक परम्परा का ही अनुसरण हुआ है। ज्ञातव्य है कि मूलाचार और भगवती आराधना जो एक ही परम्परा के ग्रन्थ है, में भी इन पाँचों भावनाओं को लेकर परस्पर अन्तर है।
जहाँ तक चतुर्थं महाव्रत की भावनाओं का प्रश्न है आचारांग, समवायांग, तत्त्वार्थभाष्य, मूलाचार, भगवती आराधना और चरित्तपाहुड इन सभी में वे समान रूप से ही वर्णित हैं केवल शाब्दिक भिन्नता को छोड़कर उन में कहीं भी भावगत भिन्नता नहीं है, यद्यपि क्रम में किंचित् अन्तर भी पाया जाता है । जहाँ आचारांग में स्त्रीकथा निषेध को प्रथम स्थान दिया गया है वहाँ मूलाचार में उसका स्थान चौथा है। इसी प्रकार जहाँ स्त्री, पश, नपूसक आदि से संसक्त शय्या और आसन का निषेध आचारांग में पांचवें स्थान पर है वहीं मूलाचार और भगवती आराधना में वह तीसरे स्थान पर है। इस प्रकार क्रम सम्बन्धी अन्तर को छोड़कर कहीं कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता। यहाँ भी यापनीय परम्परा ने आगमिक परम्परा का ही अनुसरण किया है।
जहाँ तक पञ्चम महाव्रत का प्रश्न है आचारांग, समवायांग, तत्त्वार्थसूत्र मूलाचार एवं भगवती आराधना में इस व्रत की भावनाओं के नामों में कोई अन्तर नहीं हैं। सभी पाँच इन्द्रियों के विषयों के सेवन के निषेध को ही परिग्रह व्रत की पांच भावनाओं के रूप में स्वीकार किया गया। यहाँ भी आगमिक एवं यापनीय परम्परा में कालक्रम का अन्तर है । आचारांग में क्रम है-मनोज्ञ, शब्द, रूप, गंध, स और स्पर्श के प्रति राग-द्वेष का निषेध । जबकि-मूलाचार और भगवती आराधना में-शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध यह क्रम दिया गया है। मूलाचार और भगवती आराधना का यह क्रम अन्य दर्शनों में पंचीकरण में पंचमहाभूतों के दिये गए क्रम के अनुरूप ही है। जबकि आचारांग आदि में यह क्रम इस रूप में उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार हम देखते हैं कि पंचमहाव्रतों और उनकी पाँच-पाँच भावनाओं को लेकर आगमिक परम्परा
और मूलाचार तथा भगवती आराधना की यापनीय परम्परा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। मात्र क्रम आदि का भेद है जो एक ही परम्परा के ग्रन्थों में भी पाया जाता है। छठे व्रत के रूप में आगमिक परम्परा में
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