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४८८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अनुसरण करके अहिंसा महाव्रत की भावना के रूप में वचनगुप्ति के स्थान पर एषणा समिति को स्थान देते हैं, ऐसा लगता है कि जब निर्ग्रन्थ संघ में पात्र में भिक्षा ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हुई होगी तो उसके परिणामस्वरूप अहिंसावत की भावना में से वचनगुप्ति को हटाकर उसके स्थान पर एषणा समिति को रख दिया गया होगा।
जहाँ तक द्वितीय महाव्रत की भावनाओं का प्रश्न है क्रमभेद को छोड़कर सामान्यतया आचारांग आदि सभी आगमों, चूर्णियों तथा तत्त्वार्थसूत्र में एकरूपता ही पायी जाती है। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार, भगवती आराधना में भी आगम, भाष्य और चणियों का हो अनुसरण पाया जाता है। सर्वत्र क्रोध, भय, लोभ और हास्य के वर्जन के साथ अनुवीची भाषण को सत्यानुवर्ती भावना कहा गया है। इस प्रसंग में मात्र कुन्दकुन्द ऐसे हैं जो चरित्रपाहुड में अनुवीची भाषण के स्थान पर मोह त्याग का उल्लेख करते हैं । अतः इस सन्दर्भ में हम यही कह सकते हैं कि द्वितीय महावत की पाँच भावनाओं में श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा में एकरूपता है जबकि कुन्दकुन्द के अनुवोची भाषण और मोहत्याग को लेकर उनमें मतभेद हैं।
जहाँ तक तृतीय महाव्रत की भावनाओं का प्रश्न है श्वेताम्बर परंपरा में आचारांगसूत्र में जिन पाँच भावनाओं का उल्लेख है उनका श्वेताम्बर परम्परा के ही आगम समवांयाग, आवश्यकर्णि और आचारांगचूणि से मूल भावना को एकरूपता होते हुए भी आंशिक रूप में अन्तर है। जहाँ आचारांग में प्रथम भावना विचारपूर्वक सीमित स्थान की याचना करना है वहाँ समवायांग में स्थान की बार-बार याचना करना है। इसी प्रकार आचारांग में जहाँ द्वितीय भावना अनुज्ञापित पानभोजन-भोजी है वहाँ समवायांग, आचारांगचूर्णि और आवश्यकचूर्णि में अवग्रह की सीमा जानना या अवग्रह ( स्थान ) की याचना करना है। आचारांग में तीसरी भावना सीमा और समय के उल्लेखपूर्वक स्थान की याचना करना है। यद्यपि यह भावना समवायांग, आचारांगणि, आदि में समान रूप से पायी जाती है। आचारांग में चौथी भावना स्थान के लिए बार-बार याचना करना है । जबकि समवायांग में उसे सामियों के स्थान का भी उनकी आज्ञापूर्वक उपयोग करना बताया गया है, किन्तु आचारांगचूर्णि एवं आवश्यकचूणि में इसके स्थान पर गुरु की आज्ञापूर्वक आहार-पानी का उपयोग करना कहा गया है। पांचवीं
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