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प्रकाशकीय जैन धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बर तो प्रसिद्ध ही हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त जैनों का एक सम्प्रदाय और भी था, जो यापनीय के नाम से जाना जाता था। यह सम्प्रदाय ईसा की पाँचवीं शती से लेकर पन्द्रहवीं शती तक की एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में अस्तित्व में रहा है। साहित्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से जैन धर्म को इसका अवदान महत्त्वपूर्ण रहा है। इस सम्प्रदाय के अनेकों ग्रन्थ आज भी दिगम्बर परम्परा में आगमतुल्य माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय की विशेषता यह है कि यह श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के मध्य एक योजक कड़ी का कार्य करता है। जहाँ एक ओर यह स्त्रीमुक्ति, केवली-भुक्ति तथा आगमों का अस्तित्व आदि प्रश्नों पर श्वेताम्बर परम्परा से सहमत है, तो वहीं दूसरी ओर मुनि की अचेलता को लेकर दिगम्बर परम्परा का भी समर्थन करता है। लगभग सहस्र वर्ष की लम्बी अवधि में इस सम्प्रदाय में अनेक आचार्य और मुनि हुए हैं, जिन्होंने विपुल साहित्य का सृजन किया है। इसके अतिरिक्त इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित अनेक मन्दिर एवं अभिलेख भी उपलब्ध होते हैं, जो इसकी महत्ता को स्थापित करते हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इस सम्प्रदाय के विषय में जनसाधारण एवं विद्वत् वर्ग दोनों ही में जानकारी का प्रायः अभाव ही है। कुछ स्वतन्त्र लेखों और मात्र श्रीमती कुसुम पटोरिया की कृति यापनीय सम्प्रदाय और उसका साहित्य को छोड़ कर इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्रकाश में नहीं आयी है। इस सम्बन्ध में जैन विद्या के अधिकृत विद्वान डॉ० सागरमल जैन ने गम्भीरता से अध्ययन करके इस वृहद्काय ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में उन्होंने सम्प्रदाय निरपेक्ष होकर तथ्यों को प्रस्तुत करने का यथासम्भव प्रयत्न किया है। प्रस्तुत कृति के मूल्य और महत्त्व का निर्धारण तो विद्वदगण करेंगे, हमें तो केवल इतना तोष है कि हमने इस अज्ञात सम्प्रदाय के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध लेखक की कृति को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया है जिससे जन-जन को इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध हो सके।
प्रस्तुत कृति का प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी और प्राकृत
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