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________________ निनन्य संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४७३ श्वेताम्बर माथुर संघ की है और परवर्ती है। अतः इसे वस्त्र पात्र की प्राचीनकाल की स्थिति को समझने में आधार भूत नहीं माना जा सकता है । किन्तु आचारांग में अधिकतम तीन वस्त्रों के रखने का उल्लेख होने और पालित्रिपिटक' में एकशाटक निर्ग्रन्थों का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि वस्त्र रखने की परम्परा भी प्राचीन है । जहाँ तक चोलपट्टक का प्रश्न है प्रारम्भ में वह लंगोटी के समान एक छोटा सा वस्त्र खण्ड ही था जो मात्र नग्नता छिपाने के लिए उपयोग में लाया जाता था। आचारांग में इसे 'ओमचेल' अर्थात् छोटा वस्त्र कहा गया है। चोलपट्टक मूलतः चलपट्ट से बना है जिसका अर्थ भी छोटा कपड़ा या वस्त्र खण्ड ही होता है। हरिभद्र ने मुनियों के द्वारा अकारण ही जिस कटि वस्त्र के धारण करने की आलोचना की है वह भी इसी का सूचक है। वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में जो घुटनों के नीचे तक के अधोवस्त्र धारण किये जाते हैं, यद्यपि उनका नाम भी चोलपट्टक ही है फिर भी उनके आकार-प्रकार में क्रमशः वृद्धि हई है। ___जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है भगवतो आराधना की टीका में अपराजित ने मुनि के चौदह उपकरणों का उल्लेख अवश्य किया है। किन्तु ज्ञातव्य है कि ये चौदह उपकरण उन्हें स्वीकार्य नहीं थे । यद्यपि उनके काल अर्थात् नवीं शताब्दी के पूर्व श्वेताम्बर परम्परा में ये स्वीकृत हो चुके थे। यापनीय परम्परा इनमें से मात्र प्रतिलेखन और पात्र-वह भी केवल शौच के लिए जल ग्रहण करने हेतु-स्वीकृत किया गया था । यापनीय ग्रन्थों में प्रतिलेखन को संयमोपधि और पात्र को शौचोपधि के रूप में मान्य किया गया है। शेष वस्त्र, पात्र आदि का ग्रहण उनके अनुसार आपवादिक स्थिति में ही स्वीकृत था। उनके अनुसार आगम और नियुक्ति आदि में जिन चौदह उपधियों ( उपकरणों) की चर्चा है, वह केवल आपवादिक स्थिति की सूचक है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वस्त्र, पात्र के विकास के साथ-साथ ही निम्रन्थ परम्परा में जिन कल्प और स्थविरकल्प की दो भिन्न-भिन्न परम्पराओं का विकास हुआ जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। १. निग्गंथा एकसाटका।-मज्झिमनिकाय, महासिंहनादसुत्त १।१।२ .. २. अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले । आचारांग सूत्र ( आत्मारामजी) ११८५१ पृ० ५८५ ३. चतुर्विध उपधि गृहणतां बहु प्रति लेखनता न तथा चेलस्य । भगवती आराधना (विजयोदया टीका) गाथा ४२३, पृ. ३२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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