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४७० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय कोई निर्देश नहीं है अपितु यही कहा गया है कि जो भिक्षु तरुण, युवा, बलवान, निरोग एवं स्थिर संहननवाला है, वह एक ही वस्त्र रखे, दूसरा नहीं। यही वस्त्रधारी की सामग्री है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिलेखना के सन्दर्भ में मुख-वस्त्रिका, गोच्छग/पात्रकम्बल और वस्त्र इन तीनों का उल्लेख हुआ है । दशवैकालिक में भी वस्त्र-पात्र की संख्या में वृद्धि के कोई निर्देश नहीं हैं। मात्र इतना कहा गया है कि साधु-साध्वी जो वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रोञ्छन रखते हैं वे केवल अहिंसा के परिपालन या लोक-लज्जा के निवारणार्थ रखते हैं, अतः उसे भगवान ने परिग्रह नहीं कहा है । सम्भवतः यह कथन वस्त्रधारी पर होने वाले आक्षेप के निवारणार्थ ही किया गया होगा।
वस्त्र आदि उपकरणों की संख्या में वृद्धि के सन्दर्भ सर्वप्रथम बृहल्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि छेदसूत्रों में ही मिलते हैं किन्तु उनमें सम्पूर्ण १४ उपकरणों का उल्लेख एक साथ नहीं मिलता है । व्यवहार सूत्र में उल्लेख है कि वृद्धावस्था को प्राप्त स्थविर को दण्ड, पात्र, छाता, मात्रक, लाठी, भिस्स (पीण-फलक , वस्त्र, चेल-चिलिमिलिका, चर्म, चर्मकोष और चर्म परिच्छेदक अविरहित स्थान में रखकर आना जाना
१. क. जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं वत्थं
धारेज्जा, णो बितियं ॥ आयारचला, ५।१।२ ख. जा णिग्गंथी, सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा-एगं दुहत्थवित्थारं, वो
तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्यवित्थार, तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असं
विज्जमाणेहि अह पच्छा एगमेगं संसीवेज्जा । वही ५।११३ २. क. पडिलेहेइ पमत्ते अवज्झइ पायकंबलं ।
पडिलेहणाअणाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। उत्तरा० १७९ ख मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता पडिलहिज्ज गोच्छन् । ___ गोच्छगलइयंगुलिओ वत्थाई पडिलेहए ।। वही २६।२३ ग. जे भिक्खू णिग्गंथीणं आगमणपहसि दंडगं वा लट्ठियं वा रयहरणं वा मुहपोत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेति, ठवेंतं वा सातिज्जति ।। -निशीथ, ४।२३ और भी देखें-भगवती-२।१०६, १५।१०,१५३,
ज्ञाताधर्मकथा, १।१४।४१, उपासकदशा, ११७०, अंतकृत्दशा, ३।२२ ३. जंपि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं ।
तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंतिय । दशवकालिक, ६।१९
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