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________________ ४६० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है ( एवमचेलवतिनियमादेव भाज्या सचेले ), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। यहाँ दिगम्बर परम्परा और यापनीय परम्परा का अन्तर स्पष्ट है । दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थंकर ही क्यों न हो जबकि यापनीय परम्परा यह मानतो है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्य तैर्थिक सचेल होकर भी मुक्त हो सकते हैं। यहाँ भाज्य (विकल्प ) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार और अनेकांतिक दृष्टि का परिचायक है। ६. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वष बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के प्रति रागभाव हो सकता है। ७. अचेलक को शरीर के प्रति उपेक्षा भाव रहता है। तभी तो वह शीत और ताप के कष्ट सहन करता है। ८. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी ) लेकर चल देता है। ९.अचेलता में चित्त-विशुद्धि प्रकट करने का गुण है-लंगोटी आदि से ढाँकने से भाव-शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है। १०. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं रहता। ११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है। १२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल को नहीं करनी होती। १३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रंगना आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने होते। १४. तीर्थंकरों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) भी अचेलता का एक गुण है। क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी तीर्थंकर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिन प्रतिमा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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