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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४२७ नहीं मानने वालों को आयु कर्म के उदय में भी उसका फल-विपाक अर्थात् जीवन धारण नहीं मानना होगा। (८) यदि यह माने कि अनन्तशक्ति सम्पन्न केवली भगवान को भोजन की क्या आवश्यकता है ? तो यह मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि यदि भोजन के बिना केवल अनन्तशक्ति के कारण शरीर स्थिति मानोगे तो फिर अनन्तशक्ति के कारण आयुष्यकर्म के बिना देहस्थिति भी माननी होगी। (९) केवली के भोजन का उद्देश्य भूख की वेदना को शांत करना नहीं, अपितु स्व-पर कल्याण होता है। जिस प्रकार उनका वचन-व्यवहार एवं विहार स्व-पर कल्याण के निमित्त होता है, उसी प्रकार उनका आहार भी स्व-पर कल्याण के निमित्त होता है। ___(१०) केवली में क्षुधादि ग्यारह-परीषहों का सद्भाव ध्यान या लेश्या के समान ही उपचार से है, यह तर्क भी उचित नहीं है। केवली में ध्यान का सद्भाव है, उपचार नहीं। केवली को चाहे एकाग्र चिन्ता निरोध रूप ध्यान नहीं होता हो, किन्तु योग निरोध रूप ध्यान तो होता ही है, क्योंकि योग निरोध रूप ध्यान तो चौदहवें गुणस्थान तक रहता हो है। केवली यथार्थ में ही मन, वाक और काय योग का निरोध करता है। समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपातिध्यान तो चरम समय में होता है । उसके पूर्व तो योग निरोध रूप ध्यान होता है। (११) यदि कहा जाय कि जिस प्रकार देवों को कवलाहार (प्रक्षेपाहार ) की अपेक्षा नहीं होती है, उसी प्रकार केवली को भो कवलाहार की अपेक्षा नहीं होती, तो यह तर्क भी उचित नहीं है, क्योंकि देवों का शरीर औदारिक नहीं, अपितु वैक्रिय होता है, जबकि केवली का शरीर औदारिक ही होता है। औदारिक शरीर के लिये ओज, लोम और प्रक्षेप-ये तीनों ही आहार माने गये। (१२) चरमदेहधारी को भी मुक्ति रत्नत्रय की साधना की पूर्णता के बिना नहीं होती और बिना भोजन के आयुष्य पर्यन्त शरीर स्थिति नहीं हो सकती। (१३) जिस प्रकार नख, केश आदि का न बढ़ना अथवा पसीना आदि न आना अथवा पूर्वाभिमुख होकर बैठने पर भी सभी ओर मुख का दिखाई देना आदि विशेषताएँ तीर्थंकर के पुण्य कारण होती हैं, उसी प्रकार केवली में भूख का नहीं लगना उनकी देहगत विशेषता हो सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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