SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३८३ के तत्त्वार्थसूत्र का उपजीव्य बने है। साथ ही यह भी सत्य है कि उन प्राचीन आगमों का माथुरी और वलभी वाचनाओं में संकलन एवं सम्पादन हुआ है, नव-निर्माण नहीं, अतः यह मानना भो बिल्कुल गलत होगा कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति के सम्मुख जो आगम उपस्थित थे, वे वर्तमान श्वेताम्बर मान्य आगमों से बिल्कुल ही भिन्न थे। वे मात्र इनका पूर्व संस्करण थे। ६. तत्त्वार्थ के भाष्यमान्य और सर्वार्थसिद्धिमान्य ऐसे दो पाठ प्रचलित हैं। इनमें कौन-सा पाठ प्राचीन और मौलिक है तथा कौन-सा विकसित है ? यह विषय विवादास्पद रहा है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जहाँ सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ भाषा, व्याकरण और विषयवस्तु तीनों की दृष्टि से अपेक्षाकृत शुद्ध, व्याकरण सम्मत और विकसित है, वहीं भाष्यमान्य मूलपाठ उसको अपेक्षा भाषायी दष्टि से पूर्ववर्ती और कम विकसित प्रतीत होता है। अतः भाष्यमान्यपाठ की प्राचीनता सुस्पष्ट है। सुजिका ओहिरो आदि विदेशी विद्वानों का भी यही मन्तव्य है। ७. इसी से सम्बद्ध ही एक प्रश्न यह उठता है कि इस पाठ परिवर्तन का उत्तरदायी कौन है ? सामान्यतया श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता रही है कि यह पाठ परिवर्तन दिगम्बर आचार्यो के द्वारा किया गया, किन्तु पूर्व चर्चा में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि भाष्यमान्यपाठ का संशोधन करके जो सर्वार्थसिद्धिमान्यपाठ निर्धारित हआ है, उस परिवर्तन का दायित्व दिगम्बर आचार्यों पर नहीं जाता है। यदि पूज्यपाद देवनन्दी ने ही इस पाठ का संशोधन किया होता तो व 'एकादश जिने' आदि उन सूत्रों को निकाल देते या संशोधित कर देते जो दिगम्बर परम्परा के पक्ष में नहीं जाते हैं। इस सम्बन्ध में मेरा निष्कर्ष यह है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ किसी यापनीय आचार्य द्वारा संशोधित है। पूज्यपाद देवनन्दी को जिस रूप में उपलब्ध हुआ है उन्होंने उसी रूप में उसको टीका लिखो है। पुनः यह संशोधित पाठ भो स्वयं तत्त्वार्थ भाष्य पर आधारित है। इसमें अनेक भाष्य के वाक्य या वाक्यांश सूत्र के रूप में ग्रहीत कर लिए गये हैं । जहाँ तक भाष्यमान्य पाठ का प्रश्न है, वही तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ रहा हैं और श्वेताम्बर आचार्यों ने भी कोई पाठ संशोधन नहीं किया हैसिद्धसेन गणि को वह पाठ जिस रूप में उपलब्ध हुआ है, उन्होंने उसे वैसा ही रखा है यदि वे उसे संशोधित करते या सर्वार्थसिद्धि के पाठ के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy