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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३७१ काल से ठीक बैठती है। उमास्वाति इसके पश्चात् ही कभी हुए हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने अपने प्रगुरु घोषनन्दी श्रमण और गुरु शिवश्री का उल्लेख किया है। मुझे मथुरा के अभिलेखों में खोज करने पर स्थानिक कुल के गणी उग्गहिणी के शिष्य वाचक घोषक का उल्लेख उपलब्ध हुआ है। स्थानिककुल भी उसी कोटिकगण का कुल है, जिसकी एक शाखा उच्च नागरी है। कुछ अभिलेखों में स्थानिक कुल के साथ वज्री शाखा का भी उल्लेख हुआ है । यद्यपि उच्चनागरी और वजी दोनों ही शाखाएँ कोटिकगण की हैं । मथुरा के एक अन्य अभिलेख में 'निवतना शीवद' ऐसा उल्लेख भी मिलता है। निवर्तना सम्भवतः समाधि स्थल की सूचक है, यद्यपि इससे ये आर्यघोषक और आर्य शिव निश्चित रूप से ही उमास्वाति के गुरु एवं प्रगुरु हैं, इस निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है, फिर भी सम्भावना तो व्यक्त को ही जा सकती है। आयं कृष्ण और आर्य शिव जिनके वीच वस्त्र-पात्र सम्बन्धी विवाद वीर नि० सं०६०९ में हआ था। उन दोनों के उल्लेख हमें मथुरा के कुषाणकालीन अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं । यद्यपि आर्य शिव के सम्बन्ध में जो अभिलेख उपलब्ध हैं, उसके खण्डित होने से संवत् का निर्देश तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु 'निवतनासीवद' ऐसा उल्लेख है जो इस तथ्य का सूचक है कि उनके समाधि स्थल पर कोई निर्माण कार्य किया गया था। आर्य कृष्ण का उल्लेख करने वाला लेख स्पष्ट है और उसमें शक संवत् ९५ निर्दिष्ट है । इस अभिलेख में कोट्टोयगण स्थानीय कुल और वैरी शाखा का उल्लेख भी है। इस आधार पर आर्य शिव और आर्य कृष्ण का काल वि० सं० २३० के लगभग आता है । वस्त्र-पात्र विवाद का काल वीर नि० सं० ६०९ तदनुसार ६०९ - ४१० = वि० सं० १९९ मानने पर इसकी संगति उपयुक्त अभिलेख से हो जाती है क्योंकि आर्य कृष्ण की यह प्रतिमा उनके स्वर्गवास के ३०-४० वर्ष बाद ही कभी बनो होगी। उससे यह बात भो पुष्ट हाती है कि आर्य शिव आर्य कृष्ण से ज्येष्ठ थे। कल्पसूत्र स्थविरावलो में भी उन्हें ज्येष्ठ कहा गया है, किन्तु कतिपय परवर्ती रचनाओं में उन्हें आर्य कृष्ण का शिष्य कहा गया है। हालाँकि यह बात उचित प्रतोत नहीं होती। सम्भावना यह भी है ये दोनों गुरुभाई हों और १. जैनशिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक ८५ । 2. The Jain Stupa and other Anti quities of Mathura, Vincent A. Simth,-Indological Bookhouse 1969, p. 24. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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