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________________ ३६२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय मिलते हैं जैसे शिवार्य के गुरु मित्रनन्दि, जिननन्दि आदि। उन्होंने यह भी सम्भावना प्रकट की है कि उमास्वाति के वाचनाप्रगुरु शिव श्री आर्य शिव ही हों। यह भी सम्भव है कि वाचनागुरु मूल का भी पूरा नाम मूलनन्दी हो।' आदरणीय प्रेमी जो इस सम्भावना को स्वीकार करने में कतिपय कठिनाईयाँ हैं। सर्व प्रथम आदरणीय प्रेमी जो की यह मान्यता कि नन्दो नामान्त नाम केवल यापनीय नन्दीसंघ में रहे हैं, समुचित नहीं है। कल्पसूत्र स्थविरावली या नन्दोसूत्र स्थविरावली के अतिरिक्त मथुरा के अभिलेखों में भी नन्दी नामान्त नाम मिलते हैं। दूसरे यह कि जब प्रेमी जी स्वयं तत्त्वार्थभाष्य को उमास्वाति की कृति मानते है और यह भी मानते हैं कि भाष्य में किये गये उनके दीक्षा गुरु और प्रगुरु तथा वाचना गुरु और प्रगुरु के नाम यथार्थ हैं तो फिर उन्हें यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें जो उच्चनागर शाखा और वाचक वंश का उल्लेख है वह भी प्रामाणिक है। स्पष्ट है कि यापनीयों में किसी भी उच्चनागर शाखा का उल्लेख नहीं मिलता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र को स्थविरावलि में स्पष्ट रूप से उच्चनागर शाखा का उल्लेख है। उच्चनागर शाखा के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय शताब्दी के नौ अभिलेख भी मथुरा से प्राप्त होते हैं। यह स्पष्ट है कि न तो दिगम्बर परम्परा में किसी उच्चनागर शाखा का उल्लेख है और न यापनोय परम्परा में उच्चनागर शाखा का उल्लेख है। जबकि श्वेताम्बरों की पूर्वज धारा में इसका उल्लेख है । नागरशाखा का अस्तित्व हमें अभिलेखों के आधार पर तृतीय शताब्दी तक मिलता है। यही काल उमास्वाति का भी सिद्ध होता है । इस काल तक यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से अस्तित्व में नहीं आ पायी थी। यदि हम महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के ४१० वर्ष पूर्व मानते हैं तो कल्पसूत्र की सूचनानुसार उच्चनागर शाखा विक्रम संवत् के लगभग ४० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आयी । तथा वस्त्रपात्र सम्बन्धी विवाद भी विक्रम संवत् की लगभग द्वितीय शती के अन्तिम दशक एवं तृतीय शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ होगा। आवश्यक मलभाष्य की सूचना के अनुसार भी उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में शिवार्य और आर्य-- कृष्ण के बीच वस्त्र एवं पात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारम्भ हो गया था। यद्यपि आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य वीर निर्वाण संवत् ६०९ तदनुसार १. जैन साहित्य और इतिहास पं० नाथुराम जी प्रेमी, पृ० ५३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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