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________________ ३५४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उल्लेख होते हुए भी उनके सन्दर्भ में इतने मत-वैभिन्य हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचना असम्भव है। पं० नाथूराम जी प्रेमी के साथ हमें भी यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि इन पदावलियों के आधार पर उमास्वाति की परम्परा का निर्धारण नहीं किया जा सकता, किन्तु इस आधार पर उनका उमास्वाति को यापनीय मान लेना हमें समुचित प्रतीत नहीं होता है । यदि जिनसेन ने हरिवंशपुराण में सभी प्रमुख ग्रन्थकर्ताओं की स्तुति को, तो फिर उन्होंने उमास्वाति को क्यों छोड़ दिया ? क्या मात्र इसीलिए कि वे उनकी परम्परा से भिन्न थे। आश्चर्य तो यह है कि जब जिनसेन अपने से भिन्न परम्परा के सिद्धसेन का उल्लेख कर सकते हैं, तो फिर उमास्वाति का उल्लेख क्यों नहीं कर सकते हैं ? यदि हम कुछ समय के लिए यह भी मान लें कि सिद्धसेन यापनीय थे, जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो यह आश्चर्य और अधिक बढ़ जाता है। यदि प्रेमी जो के अनुसार सिद्धसेन और उमास्वाति दोनों हो यापनीय हैं तो फिर जिनसेन ने एक यापनीय आचार्य का तो उल्लेख किया और दूसरे को क्यों छोड़ दिया ? पुनः हम पूर्व में यह भी सिद्ध कर चुके हैं कि जिनसेन का हरिवंशपुराण भी उसी पुन्नाटसंघ का ग्रन्थ है, जो यापनीयों के 'पुन्नागवृक्षमूलगण' से निकला है । अतः उन्हें अपनी पूर्वज परम्परा के किसी आचार्य का उल्लेख करने में क्या आपत्ति हो सकती थी? पुनः जब उसमें वीर निर्वाण सं०६८३ के पश्चात् के अपनी परम्परा के आचार्यों की एक लम्बी सूची दी गई है, जिसमें अनेक यापनीय आचार्य भी हैं तो उस सूची में उमास्वाति का नाम क्यों नहीं है? एक संभावना यह व्यक्त की जा सकती है कि जिनसेन उमास्वाति को यापनीय एवं दिगम्बर दोनों न मानकर संभवतः श्वेताम्बर मानते होंगे और इसी कारण उनका उल्लेख नहीं किया होगा, किन्तु उन्होंने श्वेताम्बर होने के कारण उमास्वाति का उल्लेख नहीं किया, यह मानने में भी एक कठिनाई यह है कि जब उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य के रूप में हो सुविख्यात सिद्धसेन का स्मरण किया तो फिर उमास्वाति को क्यों छोड़ दिया? हमारी दृष्टि में जिनसेन के द्वारा उमास्वाति का स्मरण नहीं किये जाने का कारण उनका यापनीय होना नहीं हो सकता है। ___ मेरी दृष्टि में वास्तविकता इससे भिन्न है । यह स्पष्ट है कि महावीर के संघ में भद्रबाहु के पश्चात् गण, कुल और शाखाओं के भेद प्रारम्भ हुए और फिर निर्ग्रन्थ संघ अनेक विभागों और उपविभागों में बँटता ही गया। जो स्थविरावलियाँ और पट्टावलियाँ हमें उपलब्ध हैं वे सभी परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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