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विषय-प्रवेश : २१ करती हो । अतः यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि उत्तर-भारत में अपने प्रारंभिक काल में यापनीय परम्परा अपने को आर्यकुल-भद्रान्वय और पंचस्तुपान्वय के नाम से अभिहित करतो हो । यद्यपि उस परम्परा के विरोधी श्वे. आचार्य उसे बोटिक हो कहते थे । किन्तु इनका यापनीय नामकरण इनके दक्षिण पहुँचने पर हो हुआ है। यापनीय-संघ की उत्पत्ति कथा
यापनीयों या बोटिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में कथायें उपलब्ध होती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में यह कथा विशेषावश्यकभाष्य और आवश्यकर्णि (६-७ शती) में उपलब्ध होती है । श्वेताम्बर परम्परानुसार रथवीरपुर नगर के दीपक नामक उद्यान में आर्यकृष्ण नामक आचार्य का आगमन हुआ । उस नगर में सहस्रमल्ल शिवभूति निवास करता था। प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के पश्चात् घर आने के कारण उसका अपनी माता और पत्नी से कलह होता था। एक बार रात्रि में विलम्ब से आकर द्वार खुलवाने पर उसकी माता ने द्वार न खोलते हुए कहा इस समय जहाँ द्वार खला हो वहीं चले जाओ। निराश होकर नगर में घूमते समय उसे मुनियों के निवास का द्वार उद्घाटित दिखाई पड़ा । उसने अन्दर जाकर मुनियों का वन्दन किया और प्रवजित होने की आकांक्षा व्यक्त को। पहले आचार्य सहमत नहीं हुए परन्तु उसके द्वारा स्वयं केश-लुञ्चन कर लेने पर आचार्य ने उसे मुनिलिङ्ग प्रदान किया। एक बार रथवीरपुर आगमन पर राजा ने उसे बहमूल्य रत्नकम्बल भेंट किया । आचार्य ने इसके ग्रहण करने पर आपत्ति की और शिवभूति को बिना बताये ही किसी समय उस रत्नकम्बल के आसन निर्मित कर दिये । इस कारण आचार्य और शिवभूति में मतभेद उत्पन्न हो गया। एक बार आचार्य द्वारा जिनकल्प का वर्णन करते समय उसने वर्तमान में जिनकल्प का आचरण न करने और उपधि (परिग्रह) रखने का कारण पछा ? आचार्य ने उत्तर दिया-जम्बू स्वामी के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति ने कहा-मैं जिनकल्प का आचरण करूंगा, उपधि के परिग्रहण से क्या लाभ ? क्योंकि परिग्रह के सद्भाव में कषाय, मूर्छा आदि अनेक दोष हैं । आगम में भी अपरिग्रह का उल्लेख है, जिनेन्द्र भी अचेल थे, अतः अचेलता सुन्दर है । इस पर आचार्य ने उत्तर दिया कि .. शरीर के सद्भाव में भी कभी-कभी कषाय, मूर्छा आदि होते हैं तब तो देह का भी परित्याग कर देना चाहिए, आगम में अपरिग्रह का जो उपदेश दिया गया है उसका तात्पर्य यह है कि धार्मिक उपकरणों में मूर्छा
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