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________________ तत्त्वार्थ और उसकी परम्परा : ३४९ स्थलों पर अन्तर दिखाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि तत्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थभाष्य का कर्ता श्वेताम्बर परम्परा का नहीं है । किन्तु प्रथम तो भाष्य एवं आगम में जहाँ विरोध है। उसकी चर्चा इन्हों विद्वानों ने की हो ऐसा नहीं है। उसकी चर्चा तो तत्त्वार्थभाष्य के वृत्तिकार श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेन गणि ने भो की हैं और जहाँ-जहाँ उन्हें भाष्यकार की मान्यताओं का आगम से विरोध परिलक्षित हुआ वहाँ-वहाँ स्पष्ट निर्देश भी किया। किन्तु आगमिक मान्यताओं से इस अन्तर के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता उमास्वाति आगमिक. परम्परा से भिन्न अन्य परम्परा के थे-यह सिद्ध नहीं हो जाता। सबसे पहले तो हमें यह स्मरण रखना होगा कि जिस समय उमास्वाति ने तत्त्वार्थ मल और भाष्य की रचना की उस समय तक वलभी वाचना. हो ही नहीं पायो थो। जब उमास्वाति वलभी वाचना के पूर्व हुए हैं, तो वलभो वाचना के संकलन में उनकी मान्यताओं से कुछ मतभेद हो गया हो, यह अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि उमास्वाति के सामने कोई अन्य आगम थे। वलभी आगमों के संकलन होने के पूर्व विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों के जैन आचार्यों में मान्यता विषयक कितने ही मतभेद अस्तित्व में थे । आगमों में भी उनमें से कितनों का संकलन हो पाया है और कितनों का नहीं भी हो पाया है । अतः ४-६ प्रश्नों पर आगमिक मान्यताओं और उमास्वाति को मान्यताओं में मतभेद दिखाने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि उमास्वाति किसी भिन्न परम्परा के थे । ऐसा मतभेद न केवल श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में है, अपितु दिगम्बर परम्परा जिन यापनीय ग्रन्थों को अपना आगम मान रही है, उनमें भी है। उदाहरण के रूप में कसायपाहुड की क्षपणा अधिकार को चूलिका का मन्तव्य और षट्खण्डागम के सत्कर्मप्राभूत की मान्यताओं में भी ऐसा मतभेद पाया जाता है। स्वयं धवला टीकाकार यह कहता है कि "दोनों प्रकार के वचनों में किसका वचन सत्य है, यह तो श्रुतकेवली या केवली ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं । अतः यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि कसायपाहुड और षट्खण्डागम में किसका वचन सत्य है । वर्त-- १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य-टीका-सिद्धसेनगणि ७/१६, ८/१२ ९/६, ९/४८.. ४९ (तत्त्वार्थसूत्र इन सभी के भाष्य की टीका में सिद्धसेन गणि ने आगम. से भिन्नता का स्पष्ट उल्लेख किया है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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