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________________ ३३८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय को सातवा और भोगोपभोग परिमाण को आठवाँ व्रत मानते हैं, वहीं उमास्वाति अनर्थदण्ड को तो सातवाँ मानते हैं, किन्तु भोग परिभोग-परिमाण को ग्यारहवां व्रत मानते हैं । जबकि कुन्दकुन्द ने उसे आठवाँ और गुणव्रत की दृष्टि से तीसरा माना है । पुनः कुन्दकुन्द अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत ऐसा विभाजन करते हैं जबकि उमास्वाति अणुव्रत और व्रत ( उत्तरव्रत ) ऐसा विभाजन करते हैं। यदि उमास्वाति का श्रावक के बारह व्रतों का क्रम श्वेताम्बर आगमों से असंगत है तो वह कुन्दकुन्द से भी तो असंगत है। मात्र यही नहीं कुन्दकुन्द में यह असंगति तिहरी है। कुन्दकुन्द ने गुणव्रत और शिक्षाव्रत का भेद माना है जब कि उमास्वाति ने यह भेद नहीं किया है। दूसरे यह कि कुन्दकुन्द दिग्व्रत और देशवत को अलग-अलग नहीं मानते तथा उनका क्रम उमास्वाति से भिन्न है। तीसरे वे संलेखना को बारहवें व्रत के रूप में गिनते हैं, जिसे उमास्वाति श्रावक के व्रतों में वर्गीकृत ही नहीं करते । हमें यह समझ में नहीं आता कि आगम से मात्र क्रमभंग के आधार पर यदि उमास्वाति श्वेताम्बर महीं हैं, ऐसा माना जा सकता है, तो कुन्दकुन्द जिसके वे शिष्य माने जाते हैं और जिनके ग्रन्थों के आधार पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की हैजैसा कि दिगम्बर विद्वानों द्वारा माना जाता है, तो उनसे तत्त्वार्थसूत्र की इतनी असंगति क्यों है.? हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रावक के व्रतों का अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों में विभाजन एवं उनके नाम और क्रम को लेकर न केवल श्वेताम्बर परम्परा में अवान्तर अन्तर पाया जाता है बल्कि दिगम्बर परम्परा में भी अवान्तर अन्तर पाया जाता है और वह अन्तर श्वेताम्बरों की अपेक्षा भी अधिक महत्त्वपूर्ण और सैद्धान्तिक है । दिगम्बर परम्परा में श्रावक के व्रतों को लेकर आचार्यों में परस्पर मतभेद है । अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में, सोमदेव उपासकाध्ययन में, अमितगति श्रावकाचार सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्ज चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥ -चारित्रपाहुड (परमश्रुतप्रभावक मण्डल अगास) २३-२६ १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४०-१७६ (ज्ञातव्य है कि अमृतचन्द्र तत्त्वार्थसूत्र के क्रम का पूर्णतः अनुसरण करते है और गुणव्रत और शिक्षाव्रत के स्थान पर शील शब्द का प्रयोग करते हैं) अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणवतं । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युद्ध दिशोतरे। -उपासकाध्ययन २९९ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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