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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३३३ संविभाग, ये चार शिक्षाव्रत हैं। परन्तु श्वेताम्बर आगम में देशव्रत को गुणवतों में न लेकर शिक्षाव्रतों में लिया है और इसी तरह उपभोगपरि-. भोगपरिमाणवत का ग्रहण शिक्षाव्रतों में न करके गुणवतों में किया है। जैसा कि श्वेताम्बर आगम के निम्न सूत्र से प्रकट है
"आगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंचअणुव्वयाई तिणि गुणव्वयाई चत्तारि सिक्खावयाई । तिणि गुणव्वयाई, तं जहा-अणत्थदण्ड-. वेरमाणं, दिसित्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं, देसावगासियं, पोसहोपवासे, अतिहिसंविभागे।"
-औपपातिक श्रोवोरदेशना सूत्र ५७. ___ इससे तत्त्वार्थशास्त्र का उक्त सूत्र श्वेताम्बर आगम के साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है। इस असंगति को सिद्धसेनगणी ने भी अनुभव किया है और अपनी टीका में यह बतलाते हुए कि 'आर्ष (आगम) में तो गुणवतों का क्रम से आदेश करके शिक्षाव्रतों का उपदेश दिया है, किन्तु सूत्रकार ने अन्यथा किया है', यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकार ने परम आर्ष वचन का किसलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि निम्न टोका के वाक्य से प्रकट है___"सम्प्रति क्रमनिदिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह वक्ष्यति भवान् देशवतं । परमार्षवचनक्रमः कैमर्थ्याद्भिन्नः सूत्रकारेण ? आर्षे तु गुणवतानि क्रमेणदिश्य शिक्षावतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा।"
इसके बाद प्रश्न के उत्तर रूप में इस असंगति को दूर करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालने का यत्ल किया गया है, और वह इस प्रकार है
"तत्रायमभिप्रायः-पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहोतम् । न चास्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशवतमिति देशे-भागेऽवस्थानं प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति सुखावबोधार्थमन्यथा क्रमः।" ___इसमें अन्यथा क्रम का यह अभिप्राय बतलाया है कि-'पहले से किसी ने १०० योजन परिमाण दिशागमन की मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनो दिशा का अवगाहन सम्भव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशवत का उपदेश दिया है। इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षग पूर्वगृहोत मर्यादा के एक देश में एक भाग में अवस्थान होता है। अतः सुखबोधार्थसरलता से समझाने के लिए यह अन्यथा क्रम स्वीकार किया गया है।' ।
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