________________
है
३०४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थभाष्य २. सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में २. भाष्यमान्य पाठ में प्रारम्भ सात नयों का उल्लेख मिलता है।
पाँच नयों का उल्लेख करके फिर
उनमें प्रथम और अन्तिम के दो और इसमें नयों की यह व्याख्या लगभग तीन विभाग किये गये हैं। इसमें सात पृष्ठ में समाप्त हुई है। यह व्याख्या पाँच पृष्ठों है ।
३. औपशमिक आदि भावों की ३. भाष्य में यह व्याख्या मात्र जो व्याख्या सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध है वह लगभग तीन पृष्ठों में हैं। छह पंक्तियों में समाप्त हो गयी है।
४. सम्यक् चारित्र को सवार्थ- ४. भाष्य में मात्र एक पंक्ति में सिद्धि में लगभग एक पृष्ठ में व्याख्या की गई है।
विवेचन करता है। ५. द्वितीय अध्याय के चतुर्थ ५. इसमें यह मात्र दो पंक्तियों सत्र क्षायिक भाव की व्याख्या लग
लन में है। भग एक पृष्ठ में है।
६. सर्वार्थसिद्धि में स्त्री-मुक्ति ६. भाष्य में इस चर्चा का का निषेध किया गया है। पूर्णतः अभाव है। यह चर्चा छठी
शती के पश्चात् ही अस्तित्व में
आयी है। ७. सर्वासिद्धि में पंचम अध्याय ७. तत्त्वार्थभाष्य में इन २१ के प्रथम सूत्र से इक्कीसवें सूत्र तक सूत्रों की व्याख्या मात्र छः पृष्ठों २१ सूत्रों की व्याख्या २६ पृष्ठों में हैं। में है।
८. सर्वार्थसिद्धि में अनेक ८. तत्त्वार्थभाष्य में इस शैली स्थलों पर पूर्व पक्ष की ओर से शंका का लगभग अभाव सा है यह शैली उपस्थित कर उसका समाधान किया खण्डन-मण्डन युग की देन है। गया है।
भाष्य में उसकी अनुपस्थिति स्वतः
ही उसकी प्राचीनता का प्रमाण है। ९. सर्वार्थसिद्धि (१/१९) में ९. भाष्य में अप्राप्यकारिता चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं की कोई चर्चा ही नहीं है। मात्र होता है इसकी सिद्धि में आप्राप्य- तीन पंक्तियों में व्याख्या समाप्त हो कारितों का दार्शनिक सिद्धान्त गयी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org