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२९४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उदयवाले मनुष्य गति जीव के लिए हो आता है । जो लोक में नारी, महिला या स्त्री आदि शब्दों के द्वारा व्यवहृत होता है, आगम के अनुसार मनुष्यनी शब्द का अर्थ उससे भिन्न है । ऐसी अवस्था में उक्त वाक्य को मूल का मान लेने पर मनुष्यिनी शब्द के दो अर्थ मानने पड़ते हैं । उसका अर्थ तो स्त्री वेद का उदयवाला मनुष्य जीव होता ही है और दूसरा अर्थ महिला मानना पड़ता है चाहे उसके स्त्री वेद का उदय हो या न हो ।
ऐसी महिला को भी जिसके स्त्री वेद का उदय होता है मनुष्यनी कहा जा सकता है और उसके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निषेध करने के लिए यह वाक्य आया है, यदि यह कहा जाय तो इस कथन में कुछ भी तथ्यांश नहीं प्रतीत होता, क्योंकि जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि आगम में मनुष्यनी शब्द भाववेद की मुख्यता से ही प्रयुक्त हुआ है, अतएव वह केवल अपने अर्थ में हो चरितार्थ है । अन्य आपत्तियों का विधिनिषेध करना उसका काम नहीं है ।” किन्तु भाववेद अर्थात् स्त्री सम्बन्धी कामवासना वाली स्त्री में क्षायिक सम्यक् दर्शन मानना पण्डित जी को कदापि इष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि यह स्त्री मुक्ति का साधक बनता अतः पण्डित जी ने यह लिखकर - 'हमने इस वाक्य पर भी पर्याप्त ऊहापोह कर सब प्रतियों में इसका अनुसन्धान किया है । प्रतियों के मिलान करने से ज्ञात हुआ कि यह वाक्य भी सब प्रतियों में नहीं उपलब्ध होता ।' इस कथन से भी अपना पीछा छुड़ा लिया और भी ऐसे सभी प्रसंग जहाँ उन्हें आंतरिक असंगति या परम्परा से विरोध परिलक्षित हुआ इन्हीं पाठ भेदों के नाम पर हटा दिये । आदरणीय पण्डित जी ने उसकी चर्चा अपनी भूमिका में की है । पाठक पृष्ठ १ से ७ तक देख सकते हैं ।
सर्वार्थसिद्धि प्रथम संस्करण कल्लप्पा भरमप्पा निटवे ने कोल्हापुर से प्रकाशित किया था । दूसरा संस्करण श्री मोतीचन्द्र गोतमचन्द्र कोठारी ने सोलापुर से प्रकाशित किया है । तीसरा संस्करण पं० बंशोधर जी सोलापुर वालों ने सम्पादित करके प्रकाशित किया है । यद्यपि पण्डित फूलचन्द जी स्पष्टतः यह मानते हैं कि अन्य संस्करणों की अपेक्षा यह संस्करण अधिक शुद्ध है । फिर भी पं० फूलचन्द जी को अनेक स्थलों पर पाठ बदलने पड़े हैं - आखिर क्यों ? केवल अपनो मान्यता से संगति के लिये ?
इस सम्बन्ध में वे स्वयं लिखते हैं कि अधिकतर हस्तलिखित प्रतियों में यह देखा जाता है कि पीछे से अनेक स्थलों पर विषयों को स्पष्ट करने लिए अन्य ग्रन्थों के श्लोक, गाथा, वाक्यांश या स्वतन्त्र टिप्पणियाँ जोड़
१. पं० फूलचन्द जी का यह कथन स्वतः ही आत्म विरोधी है ।
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