SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २८५ है कि सर्वार्थसिद्धिकार ने भाष्य के आधार पर ही मूल पाठ को संशोधित किया है । चूंकि भाष्य में 'निमित्त' की व्याख्या 'क्षयोपशम निमित्त' थी । अतः उन्होंने 'यथोक्त', जिसका तात्पर्य आगमोक्त था, को मूलपाठ में से हटाकर उसके स्थान पर क्षयोपशम निमित्त ऐसा भाष्य पाठ रख दिया। इससे यह भी फलित होता है कि यापनीय या दिगम्बर परम्परा में जो पाठ बदले गये हैं— उनका आधार भी भाष्य ही रहा है । अन्यथा यहाँ 'गुण प्रत्यय' पाठ रखा जा सकता था । पुनः सर्वार्थसिद्धि में सुधरा हुआ अधिक स्पष्ट पाठ होना यही सूचित करता है कि वह भाष्य से परवर्ती है । यद्यपि इस सुधारे गये पाठ में 'यथोक्त' शब्द हट जाने से एक भ्रान्ति जन्म लेती है, वह यह कि क्या भवप्रत्यय अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के बिना होता है ? वस्तुतः 'यथोक्त निमित्त:' मूल पाठ भवप्रत्यय अवधिज्ञान से गुणप्रत्यय अविधज्ञान का अन्तर जितनी अधिक गहराई से करता है, वैसा 'क्षयोपशम निमित्तः' पाठ नहीं कर पाता है। इसमें यथोक्त शब्द से अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के लिये जिस आगमोक्त तप साधना का निर्देश होता था, वह समाप्त हो गया और इस प्रकार स्पष्टता के प्रयास में पुनः एक भ्रान्ति ही खड़ी हो गई । (iii) तत्स्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में असंगति दिखाकर उन्हें भिन्न कर्तृक दिखाने के प्रयत्न में आदरणीय मुख्तार जी तीसरा तर्क यह देते है कि --- - श्वे० सूत्रपाठ के छठे अध्याय का छठा सूत्र है"इन्द्रियकषायाऽव्रत क्रियाः पंचचतुः पंचपंचविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ।" दिगम्बर सूत्रपाठ में इसी को नं० ५ पर दिया है । यह सूत्र श्वेताम्बरा - चार्य हरिभद्र की टीका और सिद्धसेनगणी की टीका में भी इसी प्रकार से दिया हुआ है | श्वेताम्बरों की उस पुरानी सटिप्पण प्रति में भी इसका यही रूप है, जिसका प्रथम परिचय अनेकान्त के तृतीय वर्ष की प्रथम किरण में प्रकाशित हुआ है । इस प्रामाणिक सूत्रपाठ के अनुसार भाष्य में पहले इन्द्रिय का, तदनन्तर कषाय का और फिर अव्रत का व्याख्यान होना चाहिये था, परन्तु ऐसा न होकर पहले 'अव्रत' का और अव्रत वाले तृतीय स्थान पर इन्द्रिय का व्याख्यान पाया जाता है । यह भाष्यपद्धति को देखते सूत्रक्रमोल्लंघन नाम की एक असंगति है, जिसे सिद्धसेनगणी ने अन्य प्रकार से दूर करने का प्रयत्न किया है, जैसा कि पं० सुखलालजी के उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy