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२८२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
को अपने वार्तिक में क्यों उद्धृत किया। दुर्भाग्य से ऐसा सब सोच हमारे परम्परा के व्यामोह और साम्प्रदायिक अभिनिवेश का प्रतीक है । हम अपने साम्प्रदायिक व्यामोहों की मोहर उस आचार्य पर लगाना चाहते हैं, जो इन सम्प्रदायों के जन्म के पूर्व हुआ था।
सम्पूर्ण ग्रन्थ में मात्र एक पाठ भेद पकड़ कर यह कह देना कि दोनों एक आचार्य की कृति नहीं है, दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या इस तरह के अनेकों पाठभेद दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। भगवती आराधना आदि अनेक ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में भी ऐसे पाठभेद मिल रहे हैं, जिनको चर्चा स्वयं पं. कैलाशचंद जी, पं० नाथूरामजो आदि दिगम्बर विद्वान् भी कर चुके हैं । अन्य ग्रन्थों को बात छोड़िए-तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका की पुरानी मुद्रित प्रतियों में और वर्तमान में भारतीय ज्ञानपीठ से मुद्रित एवं स्वयं पण्डित फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित प्रति में ही एक-दो नहीं मात्र प्रथम अध्याय में ही पचास से अधिक स्थानों में पाठभेद का संकेत तो स्वयं पं० जी ने किया है और यह पाठभेद भो सामान्य नहीं है कहीं-कहीं तो पूरे के पूरे ८-१० वाक्यों का अन्तर है। पं० फलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री ने इनके अतिरिक्त भी इसमें दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं बैठने वाले पाठों को पाठ शुद्धि के नाम पर कैसे और क्यों बदला है, इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से कुछ न कहकर मात्र उनकी सर्वार्थसिद्धि की भूमिका के पृ० १ से ७ देखने का निर्देश करेंगे ताकि पाठक उनके मन्तव्य का सम्यक् प्रकार से मूल्यां कन कर सके। ____ (ii) तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में अन्तर स्पष्ट करते हुए पं०. जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखते हैं कि “सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही आचार्य की कृति हों तब उनमें परस्पर असंगति, अर्थभेद, मतभेद अथवा किसी प्रकार का विरोध न होना चाहिये और यदि उनमें कहीं पर ऐसी असंगति, भेद' अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही आचार्यको कृति नहीं हैं-उनके कर्ता भिन्न-भिन्न हैऔर इसलिये सूत्र का वह भाष्य 'स्वोपज्ञ' नहीं कहला सकता।" उनके अनुसार श्वेताम्बरों के तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्य में ऐसी असंगति, भेद अथवा विरोध पाया जाता है।
प्रथमतः श्वेताम्बरीय सूत्रपाठ में प्रथम अध्याय का २३वाँ सत्र निम्न प्रकार है
यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ।
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