SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उल्लेख करते हैं तो उमास्वाति के द्वारा दो भिन्न ग्रंथों में संयम के सत्रह भेदों का दो भिन्न दृष्टियों से उल्लेख किया जाना असम्भव नहीं है। इससे दोनों ग्रन्थों का भिन्न कृतक होना सिद्ध नहीं होता है। उमास्वाति ने जहाँ अपने विवरणात्मक गद्य ग्रन्थ 'तत्त्वार्थभाष्य' में प्राणो संयम की दृष्टि से संयम के सत्रह भेदों का विवेचन किया है, वहीं 'प्रशमरति' में इन्द्रिय-संयम की दृष्टि से संयम के सत्रह भेदों को चर्चा की। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दोनों ही शैलियों से संयम के सत्रह भेद करने की यह परम्परा आगमिक है और इसीलिए आगमों को मानने वाली श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं में मिलती है। दिगम्बर परम्परा में संयम के सत्रह भेदों की यह चर्चा अनुपलब्ध है क्योंकि न तो पूज्यपाद देवनन्दि और न अकलङ्क ही तत्त्वार्थटीका में इन सत्रह भेदों का कहीं कोई निर्देश करते हैं। जबकि यापनोय ग्रन्थ भगवतीआराधना और यापनीय प्रतिक्रमण की टीका में प्रभाचन्द्र स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख करते है । अतः संयम के सत्रह भेदों का दो दृष्टियों से विवेचन करने वाली परम्परा, दो भिन्न-भिन्न परम्पराएँ न होकर एक ही आगमिक परम्परा . का अनुसरण है। अतः उमास्वाति के द्वारा दो भिन्न ग्रन्थों में दो भिन्न किन्तु अपनी परम्परा की शैलियों का अनुसरण करना आश्चर्यजनक नहीं है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि 'प्रशमरति' और 'तत्त्वार्थभाष्य' एक ही आगमिक परम्परा की रचनाएँ हैं और उनके कर्ता भी एक ही हैं। ____(ii) 'तत्त्वार्थभाष्य' और 'प्रशमरति' को भिन्न कर्तृक सिद्ध करने के लिए एक तर्क यह दिया जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र में और तत्त्वार्थभाष्य में जीवों के भावों के पाँच प्रकारों का ही उल्लेख मिलता है (२।१) जब कि 'प्रशमरति' कारिका १९६-१९७ में पाँच प्रकार के भावों की चर्चा के पश्चात् छठे 'सान्निपातिक' (षष्ठश्च सन्निपातिक) नामक छठे भाव की भी चर्चा करती है । इसे वैषम्य का सैद्धांतिक उदाहरण बताकर यह कहा गया है कि यदि इन दोनों का कर्ता एक होता तो ये सैद्धांतिक विषमताएँ उनमें नहीं हो सकती थी। ऐसी विषमता तो भिन्न कर्तृक कृतियों में ही सम्भव है।" १. भगवतीआराधना, गाथा ४१६-१७ । २. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी (सम्पादक प्रकाशक पूर्वोक्त) पृ० ४९-५० । ३. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० ११९ । - ४. वही, पृ० ११७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy