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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उनकी परम्परा : २६५ गया है, इससे भी भाष्य की स्वोपज्ञता सिद्ध होती है। इस प्रकार तत्त्वार्थ के कुछ मूलसूत्रों के पूर्व में भाष्य में वक्ष्यामि शब्द के प्रयोग से भाष्य की स्वोपज्ञता में सन्देह करने का कोई अवकाश ही नहीं रह जाता है। पं० सुखलालजी के शब्दों में भाष्य को प्रारम्भ से अन्त तक देखे जाने पर एक बात जंचती है कि 'कहीं सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचतान नहीं हुई है, कहीं सूत्र का अर्थ करने में संदेह या विकल्प भी नहीं लिया गया है। न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है। जबकि ये सभी बातें दिगम्बर परम्परा मान्य प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धि में देखी जाती हैं, उसमें अनेक स्थानों पर अर्थ को लेकर खींच-तान करना पड़ी है। यह वस्तुस्थिति सूत्र और भाष्य की एककृतक होने की चिरकालीन मान्यता को सिद्ध करती है। यदि भाष्यकार और सूत्रकार एक ही हैं, तो सूत्रकार के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने की पुष्टि होती है। (५) पुनः भाष्य की प्रशस्ति में उमास्वाति ने अपनी उच्चनागर शाखा का उल्लेख किया है। वह उच्चनागर शाखा दिगम्बर परम्परा में रहो है, ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता है। जबकि श्वेताम्बरमान्य कल्पसत्र की स्थविरावलि में (२१६) और मथुरा के अनेक अभिलेखों में इस उच्चनागर शाखा का उल्लेख मिलता है।५ कल्पसूत्र में यह उच्चनागरो शाखा कोटिकगण की शाखा बतायी गयी है और आज भी सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनि अपने को कोटिकगण का मानते हैं। पुनः भाष्य में उमास्वाति ने अपने को वाचक वंश का बताया है, यह वाचक वंश भी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य नन्दीसूत्र में उल्लिखित है। १, तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी भूमिका भाग, पृ० १६ । २. वही, पृ० १६ । ३, वही, पृ० १७ । ४. इदमुच्चै गरवाचकेन'-तत्त्वार्थभाष्य ५ । ५. कल्पसूत्र, (प्राकृत भारती) २१६ तथा जनशिलालेखसंग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १९, २०, २२, २३, ३१, ३५, ३६, ५०, ६४, ७१ । ६. वडढउ वायगवंसो-नन्दीसूत्र, स्तुति गाथायें, ३४, ३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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