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तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : २४९
टीकाओं में इन सिद्धान्तों के उल्लेख प्रचुरता से पाये जाते हैं ।' पूज्यपाद देवनन्दी यद्यपि सप्तभंगी सिद्धान्त की चर्चा नहीं करते परन्तु गुणस्थान की चर्चा तो वे भी कर रहे हैं। दिगम्बर परम्परा में आगमरूप में मान्य षट्खण्डागम तो गुणस्थान की चर्चा पर ही स्थित हैं । उमास्वाति के तत्त्वार्थ में गुणस्थान और सप्तभंगी की अनुपस्थिति स्पष्ट रूप से यह १. (अ) जीवाश्चतुर्दश सु
गुणस्थानेषु व्यवस्थिताः मिथ्यादृष्टिः, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि:, असंयत सम्यग्दृष्टिः संयतासंयत, प्रमत्तसंयतः, अप्रमत्तसंयतः, अपूर्वकरणस्थाने उपशमकः क्षपकः, अनिवृत्तिबादरगुणस्थाने उपशमकः क्षपकः, सूक्ष्मसाम्परायस्थाने उपशमकः क्षपकः, उपशांतकषाय वीतरागछद्मस्थः क्षीणकषायवीतरागछद्द्मस्थः, सयोगी केवली, अयोगकेवलि चेति । ११८
[ज्ञातव्य हैं कि गुणस्थान सम्बन्धी यह सम्पूर्ण विवरण पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित सर्वार्थसिद्धि में पृ० २९ से पृ० ९२ तक लगभग ६४ पृष्ठों में हुआ है - इसका तात्पर्य है कि पूज्यपाद के समक्ष यह सिद्धान्त पूर्ण विकसित रूप में था ]
(ब) (i) प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी १।६।५ तत्त्वार्थवार्तिक ।
[ अकलंक के तत्त्वार्थवार्तिक में सप्तभंगी का यह विवरण पृ० ३३ से ३५ तक तीन पृष्ठों में उपलब्ध हैं (ज्ञानपीठ संस्करण ) ]
(ii) अकलंक ने तस्वार्थ १।८ में तो गुणस्थान का निर्देश नहीं किया मात्र मार्गणास्थानका निर्देश किया । किन्तु अध्याय के सूत्र ३ एवं अध्याय ९ के सूत्र ७ एवं २६ में गुणस्थान का निर्देश किया है ।
..... मिथ्यादृष्टयादि चतुर्दशगुणस्थान भेदात् 1५1३ जीवस्थान गुणस्थानानां गत्यादिषु मार्गणा लक्षणो धर्मः
स्वारण्यातः ।
- ९।७।१०
इस प्रकार अकलंक के सम्मुख सप्तभंगी और गुणस्थान उपस्थित थे । २. एदेसि चेव चोद्दसहं जीवसमासाणं
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छक्खण्डागम १|११५
( विस्तार एवं सभी नामों के लिये देखे - छक्खण्डागम १।१।९-२२) ज्ञातव्य है कि छत्रखण्डागम गुणस्थानों के लिये समत्रांयाग के जीवठाण के समान जीवसमास शब्द का प्रयोग करता है, गुणस्थान का नहीं । अतः दोनों के तत्सम्बन्धी विवरण में पर्याप्त समानता है और ये कुन्दकुन्द की अपेक्षा पूर्ववर्ती है)
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