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२४६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
निर्मित हुआ ।' दुर्भाग्य यह है कि हमारे दिगम्बर विद्वान् आगमों की अन्तिम वाचना (सम्पादन) और उनके पूस्तकारूढ़ होने अर्थात ताड़पत्रों पर लिखे जाने के काल को ही आगम का रचना काल मान लेते हैं। यदि उसके पूर्व आगम थे ही नहीं, तो वलभो में संकलन और सम्पादन किसका हआ होगा? क्या वलभी में कोई नये आगम ग्रन्थ रचे गये थे ? यदि दिगम्बर परम्पराके विद्वानों के अनुसार तत्त्वार्थ को रचना के समय आगम थे ही नहीं तो फिर दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध तत्त्वार्थसूत्र की उत्थानिका में उमास्वाति ने ऐसा स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं किया कि वर्तमान में अङ्ग-अनङ्ग श्रतरूप आगमों का उच्छेद हो गया है और इसलिए जनसाधारण को जैनतत्त्वज्ञान का बोध कराने के लिये मैं इस ग्रन्थ की रचना में प्रवृत्त हुआ हूँ। यदि उमास्वाति ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को ही अपना आधार बनाया तो फिर तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी दिगम्बर टीकाओं की उत्थानिकाओं में कहीं भी कुन्दकुन्द को नामोल्लेख पूर्वक नमस्कार क्यों नहीं किया ? क्यों तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि और अकलंक की राजवातिक आदि टीकायें उसके कर्ता के सम्बन्ध में भी कोई निर्देश नहीं करती ? जबकि तत्त्वार्थभाष्य में तो स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि आगम के गम्भीर विषयों का सरलतापूर्वक संक्षेप में बोध कराने के लिए ही मैं इस ग्रन्थ की रचना में प्रवृत हुआ हैं वे तत्त्वार्थभाष्य में अपने वंशपरिचय के साथ-साथ अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हैं। जबकि तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीन १. सर्वार्थसिद्धि, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी
प्रस्तावना पृ० ३७ । २. वाचकमुख्यस्य शिव-श्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण ।
शिष्येण घोषनन्दि-क्षमाश्रमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रसतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।।३।। अर्हद्वचनं सम्यग, गुरुक्रमेणागतं समवधार्य ।। दुःखातं च दुरागम-विहतमतिलोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् ।। तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥
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