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२२८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय से यही सिद्ध होता है कि वे यापनीय या दिगम्बर परम्परा के आचार्य नहीं थे। मतभेदों के बावजूद भी श्वेताम्बरों ने सदैव ही उन्हें अपनी परम्परा का आचार्य माना है। दिगम्बर आचार्यों ने उन्हें 'द्वेष्य-सितपट' तो कहा, किन्तु अपनी परम्परा का कभी नहीं माना। एक भी ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं है जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को दिगम्बर परम्परा का कहा गया हो। जबकि श्वेताम्बर भण्डारों में उपलब्ध उनकी कृतियों की प्रतिलिपियों में उन्हें श्वेताम्बराचार्य कहा गया है। ___श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर मध्यकाल तक सिद्धसेन के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं । पुनः सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकायें स्पष्ट रूप से महावीर के विवाह आदि श्वेताम्बर मान्यता एवं आगम ग्रन्थों की स्वीकृति और आगमिक सन्दर्भो का उल्लेख करती है ।' यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ यह भी उल्लेख करते हैं कि कुछ प्रश्नों को लेकर उनका श्वेताम्बर मान्यताओं से मतभेद था, किन्तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता है कि वे किसी अन्य परम्परा के आचार्य थे । यद्यपि सिद्धसेन श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य को स्वीकार करते थे किन्तु वे आगमों को युगानुरूप तर्क पुरस्सरता भी प्रदान करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सन्मतिसूत्र में आगम भीरु आचार्यों पर कटाक्ष किया तथा आगमों में उपलब्ध असंगतियों का निर्देश भी किया है।२ परवती प्रबन्धों में उनकी कृति सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं होने का स्पष्ट कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में श्वे० आगम मान्य क्रमवाद का खण्डन है इसीलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने जानबूझकर उस ग्रन्थ की उपेक्षा की है। मध्ययुगीन सम्प्रदायगत मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो। अतः जानबूझकर उन्होंने उसकी उपेक्षा की।
पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को दिगम्बर सिद्ध करने के उद्देश्य से यह मत भी प्रतिपादित किया है कि सन्मतिसत्र के कर्ता सिद्धसेन, कतिपय द्वात्रिशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन-ये तीनों अलग-अलग व्यक्ति हैं।
१. 'अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्सरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते' -पंचम द्वात्रिंशिका ३६ २. देखे-सन्मतिसूत्र २/४, २/७, ३/४६ ३. जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश-पं० जुगलकिशोर मुख्तार
पृ० ५२७-५२८
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