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६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
अर्थात् "मैं चाहता हूँ, हे पूज्य ! वन्दन करने को, शरीर की शक्ति के अनुसार । इस समय मैं दूसरे कार्यों की तरफ से ध्यान रोकता हूँ, मुझे आज्ञा दीजिए, परिमित स्थान में आने की । "
उपर्युक्त वन्दनक सूत्र में आने वाले जावणिज्जाए - "यापनीय " शब्द के बारम्बार उच्चारण करने के कारण लोगों में उनकी "यापनीय" नाम से प्रख्याति हो गई। लोगों को पूरे सूत्र पाठ को तो आवश्यकता थी नहीं । उसमें जो विशिष्ट शब्द बारम्बार सुना उसी को पकड़ कर श्रमणों का वही नाम रख दिया। ऐसा होना अशक्य भी नहीं है । मारवाड़ के यतियों का इसी प्रकार " मत्थेण " - यह नामकरण हुआ है । जब वे एक दूसरे से मिलते हैं अथवा जुदे पड़ते हैं तब " मत्थएण वंदामि" यह शब्द संक्षिप्त वन्दन के रूप में बोला जाता है । इसको बार-बार सुनकर बोलने वालों का नाम ही लोगों ने " मत्थेण" रख दिया। यही बात " यापनीय" नामकरण में समझ लेना चाहिए ।" "
में
मेरी दृष्टि में कल्याणविजयजी का यापनीय नामकरण के सम्बन्ध प्रस्तुत उपरोक्त विवरण सत्य के निकट है, किन्तु वे यापनीय शब्द के निर्वाह परक अर्थ का जो विरोध करते हैं वह समुचित नहीं है ।
प्रो० तैलंग के अनुसार 'यापनीय' का अर्थ बिना ठहरे हुए सदैव विहार करने वाला है । सम्भव है कि जब उत्तर और दक्षिण भारत में चैत्यवास अर्थात् मन्दिरों में अपना मठ बनाकर रहने की प्रवृत्ति पनप रही थी तब उन मुनियों को जो चैत्यवास का विरोध कर सदेव विहार करते थे--यापनीय कहा गया हो । किन्तु इस व्याख्या में कठिनाई यह है कि चैत्यवास का विकास परवर्ती है, वह ईसा की चौथी या पाँचवीं शती में प्रारम्भ हुआ, जब कि यापनीय संघ ईसा को दूसरी के अन्त या तीसरी शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आ चुका था ।
प्रो० एम० ए० ढाकी यापनीय शब्द को मूल में यावनिक मानते हैं । उनके अनुसार सम्भावना यह है कि मथुरा में शक और कुषाणों के काल में कुछ यवन जैन मुनि बने हों और उनकी परम्परा यावनिक ( यवन + इक्) कही जाती हो । उनके मतानुसार 'यावनिक' शब्द ही आगे चल कर
१. पट्टावली पराग संग्रह ( मुनि कल्याणविजयगणि ) पृ० ९१ २. पूर्वोक्त, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६ ॥
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