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१८० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
(vi) हरिषेण चक्रवर्ती की मोक्ष गति । (vii) मधवा चक्रवर्ती को सौधर्म स्वर्ग की प्राप्ति । (viii) सनतकुमार चक्रवर्ती को तीसरे स्वर्ग की प्राप्ति ।
(ix) भगवान महावीर के द्वारा सौधर्मेन्द्र की शंका निवारणार्थ पादांगुष्ठ से मेरु को कंपित करना ( ज्ञातव्य है कि महावीर द्वारा पाँव के अँगूठे से मेरु को कंपित करने की यह कथा श्वेताम्बरों में प्रचलित है।)
(x) राम और कृष्ण के बीच चौंसठ हजार वर्ष का अन्तर ( ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ इनके बीच लाखों वर्ष का अन्तर मानती हैं )। __ इन आधारों पर डॉ. कुसुम पटोरिया का यह निष्कर्ष है-"ये अनेक कारण रविषेण को दिगम्बर आचार्य होने में शंका उपस्थित करते हैं फलतः यह कहा जा सकता है कि रविषेण की कुछ बातों में श्वेताम्बरों से समानता कुछ बातों में दिगम्बरों से समानता और कुछ बातों में दोनों से ही भिन्नता-इस तथ्य की सूचक हैं कि वे इन दोनों से भिन्न किसी तीसरी परम्परा अर्थात् यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे।"१ महाकवि स्वयंभू और उनका पउमचरिउ
अपभ्रंश भाषा में रचित स्वयंभू का यह रामकथा का ग्रन्थ भी अनेक कारणों से यापनीय परम्परा से सम्बद्ध प्रतीत होता है। उसके यापनीय होने के सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
१. स्वयंभू ने भी अपने रामकथा के स्रोत की चर्चा करते हुए रविषेण की परम्परा का अनुसरण किया है। मात्र उसमें रविषेण का एक नाम अधिक जोड़ दिया गया है। वे भी इस कथा को महावीर, इन्द्रभूति, सुधर्मा, प्रभव, कीति तथा रविषेण से प्राप्त बताते हैं। अपने कथा स्रोत में प्रभव का उल्लेख यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे।
२. उनकी रामकथा में भी विमलसूरि के 'पउमचरियं' तथा रविषेण के 'पद्मचरित' का अनुसरण हुआ है। उन्होंने भी गुणभद्र की रामकथा का अनुसरण नहीं किया है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि उनकी कथाधारा दिगम्बर परम्परा की कथा-धारा से भिन्न है। यदि रविषेण याप
. १. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १४९ ।
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