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________________ १७८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय निर्ग्रन्थ संघ से विकसित हुए श्वेताम्बरों और यापनीयों में प्रचलित रही। रविषेण के 'पद्मचरित' और स्वयंभू के 'पउमचरिउ' की रामकथा में विमलसूरि द्वारा प्रवर्तित रामकथा की धारा का अनुसरण इसी तथ्य का सूचक है कि वे यापनीय परम्परा के रहे होंगे, क्योंकि यापनीय ही श्वेताम्बर धारा के निकट थे। 'रविषेण का पद्मचरित तो पउमचरियं का संस्कृत छायानुवाद ही है'-पंडित नाथूराम जी प्रेमी का यह कथन इसी तथ्य को संपुष्ट करता है। उनके शब्दों में "रविषेण के द्वारा दिगम्बर परम्परा में प्रचलित गुणभद्र वाली कथा को न अपनाकर विमलसूरि की कथा को अपनाना, उन्हें दिगम्बर भिन्न परम्परा का द्योतित करता है" और हमारी दृष्टि में यह परम्परा यापनीय ही हो सकती है क्योंकि इस कथा में अनेक स्थलों पर अचेलकत्व पर बल दिया गया है।' (३) आचार्य रविषेण ने अपनी गुरु परम्परा में इन्द्र, दिवाकर यति, अर्हन् मुनि, लक्ष्मणसेन और रविषेण का उल्लेख किया है । 'गोम्मटसार' की टीका में इन्द्र को श्वेताम्बर बताया गया है, किन्तु इस सम्बन्ध में प्रेमी जी का यह कथन अधिक उपयुक्त लगता है कि इन्द्र नाम के श्वेताम्बर आचार्य का अभी तक कोई उल्लेख नहीं मिला है। बहुत सम्भव है कि वे यापनीय ही हों और श्वेताम्बर तुल्य होने से श्वेताम्बर कह दिए गये हों। पाल्यकीर्ति शाकटायन ने इन्द्र गुरु का उल्लेख किया है। यह सुनिश्चित है कि पाल्यकीर्ति शाकटायन यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा लिखित 'स्त्रीमुक्ति' और 'केवलीभुक्ति प्रकरण' भी इसी तथ्य के सूचक हैं कि वे यापनीय थे । पुनः हमने छेदपिण्ड शास्त्र की चर्चा के प्रसंग में इस तथ्य को सुस्पष्ट किया है कि उसके कर्ता इन्द्र वही हैं जिनका उल्लेख शाकटायन ने इन्द्र गुरू के रूप में किया है। छेदपिण्डशास्त्र की रचना और उसमें उपलब्ध अनेक तथ्य इन्द्र को यापनीय ही सिद्ध करते हैं । यदि इन्द्र यापनीय है तो रविषेण के द्वारा अपने को उसी गुरु परम्परा का सूचित करना इसी तथ्य को सूचित करता है कि वे भी यापनीय हैं। डॉ० कुसुम पटोरिया के शब्दों में 'इन्द्र और दिवाकर यति यापनीय हों तो रविषेण भी यापनीय होने चाहिए। मुनि के लिये 'यति' विरुद का प्रयोग करना यापनीयों की विशेषता है। स्वयं शाकटायन भी यतिग्रामअग्रणी कहलाते थे। १. जैन साहित्य और इतिहास-पद्मचरित और पउमचरिय, पृ० ८७-१०२ । २. वही, पृ० १६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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