________________
१३८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
करना होगा कि मूलाचार का रचनाकाल भगवतीआराधना की रचना के बाद का है और दोनों ग्रन्थों के आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर यह निर्णय करना होगा कि इनमें से कौन प्राचीन है। चूंकि यह एक स्वतंत्र निबन्ध का विषय होगा इसलिए इसकी अधिक गहराई में नहीं जाना चाहता किन्तु इतना अवश्य उल्लेख करूँगा कि यदि भगवतीआराधना की रचना मूलाचार से परवर्ती है, तो मूलाचार में लिखित यह आराधना, मरणविभक्ति में अंगीभूत आराधना ही है। दोनों का नाम साम्य भी इस धारणा को पुष्ट करता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी समय आराधना स्वतंत्र ग्रन्थ था, जो आज मरणविभक्ति में समाहित हो गया है।
श्वेताम्बर परम्परा में आगम ग्रन्थों की प्राचीनतम व्याख्याओं के रूप में नियुक्तियाँ लिखी गईं। श्वेताम्बर परम्परा में दस नियुक्तियाँ सुप्रसिद्ध हैं । नियुक्ति सम्भवतः द्वितीय भद्रबाहु की रचना मानी जाती है, किन्तु कुछ नियुक्तियाँ उससे भी प्राचीन हैं। यह भी सुस्पष्ट है कि मूलाचार के षडावश्यक अधिकार में आवश्यक नियुक्ति की ८० से अधिक गाथाएं स्पष्टतः मिलती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत गाथा में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध नियुक्तियों से ही है । यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय के द्वारा रचित हैं और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी है । इससे एक बात अवश्य स्पष्ट होती है कि मूलाचार विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है।
मूलाचारकार यह कहकर कि 'अब मैं आचार्य परम्परा से यथागत आवश्यकनियुक्ति को संक्षेप में कहूँगा', इस तथ्य की स्वयं पुष्टि करता है कि उसके समक्ष आवश्यकनियुक्ति नामक ग्रन्थ रहा है और जो उसे आचार्य परम्परा से प्राप्त था। दूसरे अस्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य ग्रन्थों की में सूची नियुक्ति का उल्लेख भी इसी तथ्य को सूचित करता है। दिगम्बर परम्परा में नियुक्तियां लिखी गईं, ऐसा कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं है, अतः मुलाचार में नियुक्ति से तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित नियुक्तियों से ही है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमिक ग्रन्थ एक ही थे-उनमें मात्र शौरसेनी और महाराष्ट्री का भाषा भेद था। मूलाचार में जिस तीसरे ग्रन्थ मरण-- विभक्ति का उल्लेख हुआ है, वह भी श्वेताम्बर परम्परा के दस प्रकीर्णकों में एक है। यह मरणविभक्ति और मरणसमाधि इन दो नामों से उल्लि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org