________________
यापनीय साहित्य : १२५. हुई गाथायें उनकी उपजीव्य हैं ।
४. जिन तीन गुरुओं के चरणों में बैठकर उन्होंने आराधना रची है, उनमें से 'सर्वगुप्त गणि' शायद वही हैं, जिनके विषय में शाकटायन की अमोघवृत्ति में लिखा है कि "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः।" १-३-१०४ । अर्थात् सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से पीछे हैं । चूँ कि शाकटायन यापनीय संघ के थे इसलिए सम्भव यही है कि सर्वगुप्त यापनीय संघ के ही सूत्रों या आगमों के व्याख्याता हों।
५. शिवार्य ने अपने को 'पाणितलभोजी' अर्थात् हथेलियों पर भोजन करनेवाला कहा है। यह विशेषण उन्होंने अपने को श्वेताम्बर सम्प्रदाय से अलग प्रकट करने के लिए दिया है। यापनीय साधु हाथ पर ही भोजन करते थे।
६. आराधना की ११३२ वी गाथा में 'मेदस्स मुण्णिस्स अक्खाणं" (मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनि की कथा का उल्लेख किया गया है। पं० सदासुखजी ने अपनी वनिका में इस पद का अर्थ ही नहीं किया है। यही हाल नई हिन्दी टीका के कर्ता पं० जिनदास शास्त्री का है। संस्कृत टीकाकार पं० आशाधर ने तो इस गाथा की विशेष टीका इसलिए नहीं की कि वह सुगम है परन्तु अमितगति ने इसका संस्कृतानुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? वे मेतार्य के आख्यान से परिचित नहीं थे, शायद इसी कारण।
मेतार्यमनि की कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध हैं। वे एक चाण्डालिनी के लड़के थे परन्तु किसी सेठ के घर पले थे। अत्यन्त दयाशील थे। एक दिन वे एक सुनार के यहाँ भिक्षा के लिए गये। उसने अपनी दूकान में उसी समय सोने के जो बनाकर रक्खे थे। वह भिक्षा लाने के लिए भीतर गया और मुनि वहीं दूकान में खड़े रहे जहां जो रक्खे थे। इतने में एक कौंच ( सारस ) पक्षी ने आकर वे जो चुग लिये। सुनार को सन्देह हुआ कि मुनि ने ही जी चुरा लिये हैं। मुनि ने पक्षी को चुगते तो देख लिया परन्तु इस भय से नहीं कहा कि यदि सच बात मालूम हो जायगी तो सुनार सारस को मार डालेगा और उसके पेट में से अपने जो निकाल लेगा। पर इससे सुनार को सन्देह हो गया कि यह काम मुनि का ही है, इसने ही जौ चुराये हैं। तब उसने उन्हें बहुत कष्ट दिया और अन्त में भीगे चमड़े में कस दिया। इससे उनका शरीरान्त
१. देखो आवश्यक नियुक्ति गाथा ८६७-७० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org