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________________ यापनीय साहित्य : ९१ की कोई भी प्राचीनतम पट्टावली ईसा की ८वीं-९वीं शती के पूर्व रचित नहीं है । वे वीरनिर्वाण के लगभग तेरह सौ वर्ष पश्चात् जिस आचार्य परम्परा को प्रस्तुत कर रही हैं उसमें कल्पना का कितना मिश्रण हैकह पाना कठिन है। नन्दीसंघ की यह प्राकृत पट्टावली भी कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों, जो कि ईसा पूर्वप्रथम द्वितीय शताब्दी से लेकर ईसा की पांचवीं शताब्दी तक परिवर्धित हुई हैं और मथुरा के अभिलेखों से प्रमाणित भी है, की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है । इसकी मूल प्रति उपलब्ध न होने से इसकी प्रामाणिकता भी सन्देहास्पद बन जाती है। आश्चर्य है कि एक बार जैन सिद्धान्त भास्कर में छपने के बाद किसी दिगम्बर विद्वान् को भी इसकी मूलप्रति देखने को उपलब्ध नहीं हो सकी। ज्ञातव्य है कि हरिवंश' में वीर निर्वाण ६८३ तक हए पूर्वज्ञान और अंगज्ञान के धारक आचार्यों की संख्या और वर्ष दिये गये, किन्तु आचारांग के धारक आचार्यों को छोड़ कर अन्य किसी के नाम नहीं दिये गये हैं। इस उल्लेख के पश्चात् जिनसेन ने अपनी गुरु परम्परा की पट्टावली प्रस्तुत की है। इसमें विनयधर से लेकर कीतिसेन तक ३१ आचार्यों के नाम हैं। इन नामों में १४वें क्रम पर नागहस्ति और १८वें क्रम पर श्री धरसेन के नाम हैं किन्तु इनका काल, प्रत्येक आचार्य का औसत काल २० वर्ष मानने पर भी, क्रमशः ६८३ + २८० = ९६३ और ६८३ + ३६० = १०४३ आता है, जो प्रामाणिक नहीं लगता है, अतः ये नागहस्ति और धरसेन अन्य ही हैं। जहाँ तक इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार का प्रश्न है वह लगभग ग्यारहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है अतः उसे भी बहुत अधिक प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । यद्यपि नवीं शताब्दी के ग्रंथ धवला में धरसेन का उल्लेख तो है किन्तु वह भी उनकी परम्परा के सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं करती है। श्रुतावतार में इन्द्रनन्दि ने तो स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि गुणधर (कषायपाहुड के प्रवक्ता) और धरसेन (महाकर्मप्रकृति के प्रवक्ता) के अन्वय, गुरु-परम्परा और पौर्वापयं का कथन करने वाले आगमों (ग्रन्थों) और मुनिजनों के अभाव के कारण हमें इस सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। श्रुतावतार का 'तदन्वयकथकागममुनिजनाभावत'-यह पद इस सम्बन्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसमें इन्द्रनन्दि द्वारा 'तद्' शब्द का, जो प्रयोग किया गया है, वह स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि इन्द्र१. हरिवंश (जिनसेन) ६६।२५-३३ २. गुणधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ -श्रुतावतार १५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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