SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यापनीय साहित्य : ८५ लिया गया होगा। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में खण्डिलगच्छ की पट्टावली में आर्य कालक (द्वितीय) के गुरु के रूप में गुणन्धर का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार पल्लीवालगच्छीय पट्टावली में देवद्धिगणी के समकालीन सोमदेव के शिष्य गुणन्धर का उल्लेख है किन्तु इस पट्टावली की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। पुनः ये गुणन्धर पर्याप्त परवर्ती हैं। अतः यदि गुणन्धर नामक कोई आचार्य हुए हैं, तो वे उसी परम्परा के पूर्वाचार्य हैं, जिससे आर्य मंा, आर्य नन्दिल, आर्य नागहस्ती और आर्य कालक हए हैं। इन सब विवादों से भी परे यह तो निर्विवाद है कि यह सिद्धान्त ग्रन्थ आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती को प्राप्त था । आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती स्पष्ट रूप से आर्यकृष्ण और शिवभूति जिनके समय में सचेल और अचेल (बोटिक-यापनीय) परम्परा का विभाजन हुआ, के लगभग समकालिक होंगे क्योंकि मथुरा के अभिलेखों में आर्यमंक्षु, आर्यहस्ति और आर्यकृष्ण के उल्लेख हैं। अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर इतना निश्चित है कि ये सभी ईस्वी सन् की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी में हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में कोई भी शौरसेनी प्राकृत की रचना उपलब्ध नहीं है। अतः कसायपाहुड के वर्तमान स्वरूप को श्वेताम्बर परम्परा की रचना तो नहीं कहा जा सकता, जैसा कि कल्याण विजय जी ने माना है। वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ आर्य मंक्षु और नागहस्ती की उस अविभक्त परम्परा में निर्मित हुआ है, जिसका उत्तरा. धिकार समान रूप से यापनीयों को भी प्राप्त हआ था। सम्भावना यही है कि आर्य मंक्षु और नागहस्ती से अध्ययन करके यतिवृषभ ने ही इसे शौरसेनी प्राकृत का वर्तमान स्वरूप प्रदान कर चूर्णिसूत्र की रचना की हो। प्राचीन परम्परा में कम्मपयडी आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थ थे, जिनके विशिष्ट ज्ञाता नागहस्ती थे। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर कसायपाहुडसुत्त की रचना हुई। यदि कसायपाहुडसुत्त आर्य मंक्षु और नागहस्ती के माध्यम से पुनर्जीवित हुआ तो यह केवल यापनीय परम्परा को ही उत्तराधिकार में प्राप्त हो सकता है, क्योंकि आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती यापनीयों के पूर्वज हैं, दिगम्बरों के नहीं। यह भी स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ सित्तरी चूर्णि में कसायपाहुड का स्पष्ट रूप से निर्देश मिलता है-जैसे ... १. देखें-पट्टावली परागसंग्रह पृ० २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy