SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ STUDIES IN JAINISM पुद्गल-द्रव्य में विस्तार है-यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है क्योंकि जिन पुद्गल स्कन्धों का हमें प्रत्यक्ष होता है वे सब विस्तार युक्त हैं। स्कन्ध की रचना ही परमाणुओं के तिर्यक् प्रचय से होती है, अतः वे काय रूप हैं ही । यद्यपि पुद्गल-द्रव्य के अन्तिम अविभाज्य घटक वे परमाणु हैं जो स्वयं तो स्कन्ध रूप नहीं है किन्तु उसमें भी स्निग्ध और रूक्ष गुणों ( Positive and negative charges) की उपस्थिति के कारण स्कन्ध रचना की सम्भावना है, अतः उनमें भी उपचार से कायत्व माना जा सकता है । पुन: उनमें अवगाहन शक्ति भी मानी गई है, अतः उनमें कायत्व या विस्तार है। यदि पुद्गल को अस्तिकाय नहीं माना जायेगा तो एक मूर्त विश्व की सम्भावना ही निरस्त हो जायेगी। जीव द्रव्य में यदि हम विस्तार की सम्भावना को अस्वीकार करेगें तो कठिनाई यह होगी कि जीव अपने स्वलक्षण चैतन्य गुण से अपने शरीर को व्याप्त नहीं कर सकेगा। शरीर से चैतन्यता का संकोच एवं विस्तार देखा जाता है। अतः उस चैतन्य गुण के धारक आत्मा को विस्तार युक्त या अस्तिकाय मानना आवश्यक है। शरीर का विस्तार तो बाल्यकाल से युवावस्था तक प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है। यदि हम शरीर को विस्तार युक्त और आत्मा को विस्तार रहित मानेगे तो दोनों में जो सहचार भाव है वह नहीं बन पायेगा: इसीलिये वेदान्त ने आत्मा सर्वव्यापी मान लिया । यद्यपि आत्मा को सर्वव्यापी मानने के सिद्धान्त में भी अनेक तार्किक असंगतियां है, किन्तु प्रस्तुत आलेख के संदर्भ से अलग होने के कारण उनकी चर्चा यहां अपेक्षित नहीं है। जैन दर्शन में आत्मा शरीर-व्यापी है, अत: वह अस्तिकाय है। अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता? यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का आरोपण सम्भव नहीं है। क्योकि काल का प्रत्येक घटक अपनी स्वतंत्र एवं पृथक् सत्ता रखता है। जैन दर्शन की पारम्परिक परिभाषा में कालाणुओं का स्निग्ध एवं रूक्ष गुण के अभाव में कोई स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है, यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर ली जाय तो पर्याय समय की सिद्धि नहीं होती है। पुनः काल के वर्तमान लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है और वर्तमान अत्यन्त सूक्ष्म है । अत: काल में विस्तार (प्रदेश प्रचय) नहीं माना जा सकता और इसलिये वह अस्तिकाय भी नहीं है। सभी अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार क्षेत्र समान नहीं है, उसमें भिन्नताये हैं। जहां आकाश का विस्तार-क्षेत्र लोक और अलोक दोनों हैं वहां धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य केवल लोक तक ही सीमित हैं । पुद्गल के प्रत्येक स्कन्ध और प्रत्येक जीव का
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy