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________________ 50 STUDIES IN JAINISM लाक्षणिक अर्थ में ही हुआ है। पांचास्तिकाय का टीका में कायत्व शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए, कहा गया है- “कायत्वमाख्यं सावयवत्वम् ' अर्थात् कायत्व का तात्पर्य सावयवत्व है। जो अवयवी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयवी द्रव्य है वह अनस्तिकाय है। अवयवी का अर्थ है अंगों से युक्त । दूसरे शब्दों में जिसमें विभिन्न अंग, अंश या हिस्से (Parts) हैं वह अस्तिकाय है। यद्यपि यहाँ यह शंका उठाई जा सकती है कि अखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना कहां तक युक्ति-संगत होगी? जैन दर्शन के पंच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन एक, अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य है, अतः उनके सावयवी होने का क्या तात्पर्य है ? पुनश्च, कायत्व का अर्थ सावयवत्व मानने में एक कठिनाई यह भी है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयवी है तो क्या वह अस्तिकाय नहीं है ? जब कि जैन दर्शन के अनुसार परमाणु-पुद्गल अस्तिकाय माना गया है। प्रथम प्रश्न का जैन दार्शनिकों का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य है, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से ये लोकव्यापी है अतः क्षेत्र की दृष्टि से इनमें सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना की जा सकती है, यद्यपि यह केवल वैचारिक स्तर पर की गई कल्पना या विभाजन ही है। दूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है अतः स्वयं तो कायरूप नहीं है किन्तु वे ही परमाणु-स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयवत्व को धारण कर लेते है । अत: उनमें कायत्व का सद्भाव मानना चाहिये । पुनः परमाणु में अवगाहन शक्ति है, अत: उसमें कायत्व का सद्भाव है । जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय और अनस्तिकाय के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व भी माना है । जो बहुप्रदेशी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो एक प्रदेशी द्रव्य है वह अनस्तिकाय है। अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा में इस आधार को स्वीकार कर लेने पर पूर्वोक्त कठिनाईयाँ बनी रहती हैं। प्रथम तो धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों स्व-द्रव्य अपेक्षा से तो एक-प्रदेशी है क्योंकि अखण्ड हैं। पुनः परमाणुपुद्गल भी एक प्रदेशी है । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में तो उसे अप्रदेशी भी कहा गया है। क्या इन्हें अस्तिकाय नहीं कहा जावेगा? यहाँ भी जैन दार्शनिकों का सम्भावित प्रत्युत्तर वही होगा जो कि पूर्व प्रसंग में दिया गया है : धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्यापेक्षा से नहीं अपितु क्षेत्र अपेक्षा से है---- द्रव्य संग्रह में कहा गया है-- यावन्मानं आकाशं अविभासिपुद्गलाण्ववष्टब्धम् । तं खलु प्रदेशं जान हि सर्वाणुस्थानदानाहम् ।। प्रो. जी. आर. जैन भी लिखते है : Pradesa is the unit of space occupied by one indivisible atom of matter. अर्थात् प्रदेश आकाश की
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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