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________________ 212 STUDIES IN JAINISM का निषेध करने पर वे मिथ्याज्ञानरूप हो जाते हैं। इसलिये जिसने शास्त्र का अभ्यास उचित रूपसे किया है वह नयों का सत्य और मिथ्या के रूप में विभाग नहीं करता।" यहां पर भी नय-ज्ञान के स्वरूप पर ध्यान देना चाहिये । जब कोई नयात्मक ज्ञान किसी धर्मों में धर्म का प्रकाशन करता है, तो वह धर्म धर्मी में अविद्यमान नहीं होता। इसलिये वह ज्ञान प्रमाणभूत है । सप्तभंगी रूप महावाक्य से जो सात धर्मों को लेकर बोध होता है उस बोध के स्वरूप में न होने के कारण यदि न य वाक्य के द्वारा उत्पन्न होनेवाले सत्य ज्ञान को अप्रमाण कहा जाय तो यह अप्रामाण्य पारिभाषिक होगा । यह वस्तु के स्वरूप के अनुसार नहीं होगा । परिभाषा को छोडकर विचार किया जाय तो नयात्मक ज्ञान और वाक्य प्रमाणस्वरूप है- यही युक्तिबल से प्रतीत होता है। इसके अनन्तर श्री उपाध्याय यशोविजय जी ने कहा है - सम्मति की गाथा के अनुसार नय प्रमाण भी है अप्रमाण भी है । परन्तु अन्य पक्ष के अनुसार नय न प्रमाणरूप है, न अप्रमाणरूप है । वे कहते हैं-नयात्मक ज्ञान संदेह स्वरूप नहीं है। संदेह में दो कोटियाँ होती हैं, परन्तु नयात्मक ज्ञान में एक कोटि होती है । इसलिये वह संदेह रूप नहीं हो सकता । नयात्मक ज्ञान समुच्चय का ज्ञानरूप भी नहीं हो सकता । संशय में प्रकार के अंदर विरोध का भाग होता है। परन्तु समुच्चय में प्रकार के अंदर विरोध का भाव नहीं होता । नयात्मक ज्ञान में दो धर्म प्रकाररूप से नहीं होते. इसलिये वह समच्चयरूप भी नहीं हो सकता।नयात्मक ज्ञान यथार्थ है, इसलिये भ्रमरूप भी नहीं हो सकता । स्थाणु में पुरुष का ज्ञान यथार्थ नहीं होता, इसलिये भ्रमरूप होता है। नयात्मक ज्ञान यथार्थ है इसलिय भ्रमरूप नहीं है। अप्रमात्मक ज्ञान के दो भेद हैं - संदेह और भ्रम । नय ज्ञान न संशयरूप है न भ्रमरूप है, इसलिये अप्रमात्मक नहीं है । प्रमात्मक ज्ञान समुच्चयस्वरूप भी होता है परन्तु उसमें एक धर्म के अंदर दो अविरोधी धर्म प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं । जब किसी को पुरुष और वृक्ष-इस प्रकार का ज्ञान एक साथ होता है, तब वह समुच्चय रूप कहा जाता है । यहां एक ज्ञान में पुरुषत्व और वृक्षत्व दो धर्म प्रकार रूपसे प्रतीत होते हैं, जो परस्पर विरोधी नहीं है । इसलिये इस प्रकार का निश्चय समुच्चय कहा जाता है। नयात्मक ज्ञान में कोई एक धर्म सत्त्व अथवा असत्त्व प्रकार रूप से प्रतीत होता है । परन्तु उसमें दो अविरोधी धर्म नहीं प्रतीत होते इसलिये वह समुच्चय रूप नहीं हो सकते । इसके अनन्तर श्री उपाध्याय जी कहते हैं - नय ज्ञान अपूर्ण होने के कारण प्रमारूप भी नहीं है । एक धर्मी में सत्त्व-असत्व आदि सात धर्म जब प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं तब जो ज्ञान होता है वह अखंड संपूर्ण होता है। इस प्रकार का संपूर्ण बोध नय ज्ञान में नहीं है, इसलिये वह प्रमारूप नहीं है । इसके अनन्तर उपाध्यायजी भट्ट अकलंकदेव के अनुसार समुद्र के अंश को दृष्टान्त रूप में लेकर कहते प्रतीत
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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