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STUDIES IN JAINISM
theory you seem to be impressed by Reichenbach; but recently Reichenbach's contention is seriously disputed and his presuppositions challenged. Lastly, in support of Dr. Marathe's point I seek to draw your attention to Bortikiewicz's theorem wherein he maintained that if the system is many--valued the meta-language of the system will always be two-valued. So one cann't dispence with two values at all levels. That is, two-valued systems are interpretative and if they are disputed, according to Bortikicwicz, consistent communication is impossible. ईश्वरचंद्र शास्त्री
श्री. संगमलालजीका नय का स्पष्टीकरण गलत है। हेमचंद्राचार्य ने सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, आदि किसी भी ग्रंथ में नय को प्रमाण नहीं कहा है। प्राचीन ग्रंथकारों की दृष्टि से प्रमाणनय शब्दही गलत है। प्रमाण नय, और दुर्नय तीन अलग हैं । प्रमाण का सामान्य अर्थ में जैन ग्रंथों में प्रयोग नहीं किया गया है । स्थात्वादमंजरी, न्यायकुमुदचंद्र या प्रमेयकमलमातंड आदि ग्रंथों में और जैन सिद्धांत के अनुसार 'प्रमाण' शब्द शब्दप्रमाण का वाचक है, और किसी प्रमाण का या प्रमाण के सामान्य अर्थ का नहीं । नय प्रत्यक्ष या परोटा के भेद नहीं हैं। और भद्र अकलंक ने भी कहा है - प्रमाणभेदात् नया: सप्त । व्रजनारायण शर्मा:
श्री. संगमलालजी उनके विचार में नैगमनय और संग्रहनय का विवेचन कैसा करेंगे? दूसरी बात यह कि नय में मुख्य और गौण भाव रहता है। इनका विवेचन संख्यीकारकों की भाषा में नहीं किया जा सकता। संगमलाल पांडे
डॉ. मराटे और डॉ. संदरराजन ने उठाये प्रश्न चितनीय है । लेकिन स्याद्वाद को Modal Logic की frame लगाते समय भी हमें पूरी तरह से सोचना चाहिये ऐसा मेरा मंतव्य है । पं. ईश्वरचन्द्रशास्त्री के इस कहनेसे कि प्रमाण ओर नय में फर्क है, मैं सहमत हूँ। symbolization के बारेमें डॉ. मराठे और डॉ. संदरराजन ने उठाये सवाल भी चितनीय हैं । मेरा उद्दिष्ट Jaina Logic को many - valued logic का application होता है यह दिखाना इतनाही था।